पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/१५५

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गीतामें ईश्वर १४६ ? उससे पहलेके २७वे श्लोकमे परमेश्वर भी शब्द आया है। मगर उसमे वह सफाई नहीं है जो १८वे अध्यायके उस ईश्वर शब्दमे है । वहाँ तो कुछ एसा मालूम होता है कि सबोसे अलग और सबोके ऊपर कोई पदार्थ है जिसे ईश्वर कहते है और उसकी शरण जानेसे ही उद्धार होगा। इस प्रकार जैसा आमतौरसे ईश्वरके बारेमे खयाल है ठीक उसी रूपमे वहाँ आया मालूम होता है। मगर यहाँ जो ईश्वर और परमेश्वर है वह उस रुप मे उसे बताता मालूम नही पडता है। "प्रकृति पुरुष चैव" इस १९वे श्लोकसे ही शुरू करके यदि देखा जाय तो देह और जीव या प्रकृति और पुरुषका ही वर्णन इस प्रसगमे है । उन्हीको क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ भी पहले तथा इस प्रसग मे भी कहा है। फिर २२वे श्लोकमे तो साफ ही कहा है कि इसी पुरुषको पर, परमात्मा, महेश्वर आदि भी कहते है जो इसी देहमे मौजूद है । आगे चलके २६वेमे उसे ही क्षेत्रज्ञ कहके २७, २८मे परमेश्वर और ईश्वर कहा है। इसलिये वह सफाई यहाँ है कहाँ ? यहाँ तो जीव और ईश्वर एकही प्रतीत होते है । ३१वे श्लोकसे भी "परमात्माऽयमव्यय" शब्दोके द्वारा इसी पुरुषको ही अविनाशी परमात्मा कह दिया है। बेशक पन्द्रहवे अध्यायके १७, १८ श्लोकोमे परमात्मा, उत्तम पुरुष, पुरुषोत्तम तथा ईश्वर शब्दोसे ऐसे ही ईश्वरका उल्लेख आया है जो प्रकृति एव पुरुषके ऊपर-दोनोसे निराला और उत्तम-बताया गया है । लेकिन यहाँवाला ईश्वर शब्द मुख्य नही है, ऐसा लगता है। चौदहवे अध्यायके १९वे श्लोकमे पर शब्द आया है। उसीके साथ 'मद्भाव' शब्द है । २६ और २७ श्लोकोमे 'मा' या 'अस्मत्' शब्द है । इससे पता लगता है कि पर शब्द भी परमात्माका वाचक है। मगर वह जीवात्मासे अलग यहाँ प्रतीत नहीं होता। हाँ, १६वें अध्यायके 'असत्यम- प्रतिष्ठन्ते जगदाहुरनीश्वरम्' (८) में जो अनीश्वर शब्दके भीतर ईश्वर 7