गीता-हृदय है वह उसी ईश्वरका वाचक है, यद्यपि सफाईमें कुछ कमी है। आगे चौदहवें श्लोकका ईश्वर गब्द तो मालिक या शासकके ही अर्थमें पाया है। हाँ, १८, १९, २० श्लोकोमे जो 'अह' और 'मा' शब्द आये है वह जरूर ईश्वरके मानीमे है । मत्रहवें अध्यायके छठे श्लोकमें 'मा' शब्द स्पष्ट ईश्वरके अर्थ में नहीं है। किन्तु जीवाभिन्न ईश्वर ही उसका श्राशय मालूम पडता है। बेगक, २७वे श्लोकमे जो 'तदर्थीय' शब्द है उसका 'तत्' शब्द ईश्वरवाचक है। लेकिन वह व्यापक अर्थमें ही आया है। अठारहवे अध्यायके ४६वे ग्लोकमे 'त' शब्द ईश्वरके ही मानीमें आया है, चाहे स्पष्टता उतनी भले ही न हो। उससे पहलेके ४३वें श्लोक का ईश्वर शब्द शासकके ही अर्थमें प्रयुक्त हुआ है । ५०-५८ श्लोकोमें ब्रह्म और अस्मत् शब्द वारवार आये है और ईश्वरार्थक है । यही वात ६५, ६६ श्लोकोके 'ग्रह', 'मत्' आदि शब्दोकी है । इमपर आगे विशेष बातें लिखी जायेंगी। ६८वे श्लोकमें भी यही बात है । ग्यारहवे अध्यायके ५-५५ श्लोकोमे 'अह', 'माम्', 'मत्', 'मे', 'मम, 'ऐश्वरम्' आदि शब्द ईश्वरवाची ही है। दसवेके २-४२ श्लोकोमे भी वारवार 'अह' शब्द 'परमा- त्मावाची' ही है। यही हालत हवे अध्यायकी भी है । सातवेंके २६,३०- श्लोको में और वेके शुरूके चार श्लोकोमें भी ब्रह्म, अधियज्ञ आदि शब्द ईश्वरके ही अर्थमें प्रयुक्त हुए है। आगेके 'अक्षर' शब्दका भी यही मत- लव है । अव्यक्त, परपुरुष आदि शब्द भी इसी मानीमे आये है । यहां 'अस्मत्' शब्दके जितने रूप है सभी ईश्वरके ही अर्थमे है । सातवें अध्याय- के 'वासुदेव' तथा 'अनुत्तमागति' ईश्वरार्थ कही है। वहाँ 'माम्', 'अहम्' आदि वारवार पानेवाले शब्द भी उसी मानीमें आये है । छठे अध्यायकी भी यही बात है । पाँचवेके १०वे श्लोकका 'ब्रह्म' शब्द और २६वे श्लोकमें 'महेश्वर' शब्द निस्सन्देह ईश्वरवाचक है। 'अह' या 'मा' आदि शब्द भी वैसे ही है । चौथे अध्यायके पहले श्लोक का 'अह' शब्द ईश्वरार्थक 1 -
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