पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/१५७

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गीतामें ईश्वर है। मगर तीसरेके 'मया' और 'मे' कृष्णके ही अर्थमें आये । छठेके "अज' एव 'ईश्वर' शब्द ईश्वरके अर्थमे आये है। फिर १४ श्लोकतक 'अस्मत्' शब्दका प्रयोग भी उसी मानीमे है। २३वेंका यज्ञ शब्द व्यापक अर्थमें ईश्वरको भी कहता है। उसके बादका ब्रह्म शब्द परमात्माका ही वाचक है। ३१वेमे भी ब्रह्मका वही अर्थ है। ३५वेका 'मयि' शब्द 'ईश्वरार्थ है। तीसरे अध्यायके तीसरे श्लोकमे 'मया' शब्द ईश्वरके ही अर्थमे आया है। दसवेका प्रजापति ईश्वर ही है और पन्द्रहवेका अक्षर भो वही है। ३०वेमे 'मयि' शब्द ईश्वरको ही कहता है। मगर ३१, ३२मे जो "मे' शब्द है वह कृष्णका वाचक है। जिस प्रकार अठारहवे अध्यायमे अत्यन्त सफाईके साथ ईश्वरका जिक्र अन्तमे आया है, ठीक उसके उलटा दूसरे अध्यायमें उसकी चर्चातक कही हई नही । वह वहाँ कतई बेदखल कर दिया गया है ! वहाँ तो आत्मा ही परमात्मा बना बैठा है। इस प्रकार स्पष्ट रूपमे तो बहुत ही कम, लेकिन अस्पष्ट रूपमे ईश्वरका उल्लेख गीतामे पद-पदपर पाया जाता है । इस तरह मालूम हो गया कि गीतामे ईश्वरकी किसी न किसी रूपमे सैकडो बारसे ज्यादा चर्चा आई है। मगर असली रूपमे हम उसे केवल १८वे अध्यायके ६१वे श्लोकमे ही साफ-साफ पाते है। कृष्णने खुद जो "मै" और "मेरा' आदिके रूपमे सैकडो बार कहा है उसमे कुछी बार अपने लिये-साकार वसुदेवपुत्रके लिये कहा है। मगर अामतौर से अपने ईश्वरीय स्वरूपको ही लक्ष्य करके बोल गये है। यदि पूर्वापरका विचार करके देखा जाय तो शरीरी कृष्णमे वे बाते लागू होई नही सकती है, जिनका उल्लेख उनने ऊपर बताये स्थानोमे जाने कितनी बार किया है । जब चौथे अध्यायके शुरूमे ही उनने कहा है कि मैने यह योग पहले विवस्वान्को बताया था और विवस्वान्ने मनुको, तो यह बात शरीरी