पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/१६१

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१५६ गीता-हृदय मगर गीता इन तीनोपर तर्स खाती और हँसती है। उसने जो ईश्वरको हृदयकी चीज बनाके बुद्धिके दायरेसे उसे अलग कर दिया है, उसके चलते ये सभी झगडे बेकार मालूम होते है और गीताकी नजरोमें ये झगडनेवाले सिर्फ भटके हुए सिद्ध हो जाते है । इन झगडोकी गुजाइश तो बुद्धिके ही क्षेत्रमें है न ? इसीलिये जहाँ हृदय पाया कि इन्हें बेदखल कर देता है, कान पकडके हटा देता है। क्यो ? इसीलिये कि यदि ईश्वर है तो वह तो यह नही देखने जाता है कि किसके ऊपर यास्तिक या नास्तिक- की छाप (label) लगी है, या साकारवादी और निराकारवादीकी छाप । वह तो हृदयको देखता है । वह यही देखता है कि उसे सच्चाईसे ठक-ठीक याद कौन करता है। . आस्तिक-नास्तिकका भेद जब इस प्रकार देखते है तो पता लगता है कि साकारवादी और निराकारवादी तो याद करते ही है। मगर निरीश्वरवादी भी उनसे कम ईश्वरको याद नहीं करते । यदि भक्तिका अर्थ यह याद ही है तो फिर नास्तिक भी क्यो न भक्त माने जायें ? बेशक, प्रेमी याद करता है और खूब ही याद करता है, यदि सच्चा प्रेमी है। मगर पक्का शत्रु तो उससे भी ज्यादा याद करता है । प्रेमी तो शायद नीदकी दशामे ऐसा न भी करे। मगर शत्रु तो अपने शत्रुके सपने देखा करता है, बशर्ते कि सच्चा और पक्का शत्रु हो। इसीलिये मानना ही होगा कि ईश्वरका सच्चा शत्रु भक्तोसे नीचे दर्जेका हो नहीं सकता, यदि ऊँचे दर्जेका न भी माना जाय। पहले जो कहा है कि धर्म तो व्यक्तिगत और अपने समझके ही अनुसार ईमानदारीसे करनेकी चीज है, उससे भी यही बात सिद्ध हो जाती है। यदि हमे ईमानदारीसे यही प्रतीत हो कि ईश्वर हई नही और हम तदनुसार ही अमल करें, तो फिर पतनकी गुजाइश रही कहाँ जाती है ? +