दैव तथा प्रासुर सम्पत्ति तो साफ ही कह दिया है कि ससारमे जोई चमत्कारवाली गुणयुक्त चीज है वह भगवानका ही रूप है, उसीका अश है। इससे तो स्पष्ट है कि गीता- की दृष्टिमे भगवानका मतलब ही है जगन्मगलकर्तासे । गीता वैसे भग- वानको कहाँ देखती और मानती है जो केवल स्वर्ग और नर्कमे भेजनेका इन्तजाम करता हो, या मुक्ति देता हो ? गीताने तो ऐसे भगवानका खयाल ही नही किया है। यही बात सोलहवे अध्यायके ७-२४ श्लोकोसे भी सिद्ध होती है। आमतौरसे यही होता है, यही बात देखी जाती है कि जो कुकर्मोको करता हुआ ईश्वरकी सत्तामे विश्वास नहीं करता हो उसकी निन्दा या उसके खडन-मडनका जब प्रसग आये तो इसी बातसे शुरू करते है कि देखिये न, यह तो ईश्वरको ही नहीं मानता है और साफ ही कहता है कि इस सृष्टि की उत्पत्ति या इसके कामके सचालनके लिये उसकी जरूरत हई नही | फिर और लोगोकी इसे क्या पर्वा होगी? उनके हितोको क्यो न पांव तले रौंदेगा? आदि आदि । ठीक भी यही प्रतीत होता है और स्वाभाविक भी। भगवान तो लोगोके लिये सबसे बडी चीज है और जो उसे ही नही मानता वह बाकीको क्यो मानने लगा ? लोगोका गुस्सा भी यदि उसपर उतरेगा तो यही कहके कि जब यह, शालग्रामको ही भून देता है तो इसे बैगन भूननेमे क्या देर ? अन्तमे भी सब कुछ, लानत-मलामतके बाद यही कहेगे कि इसकी ऐसी हिम्मत कि भगवान तकको भी इनकार कर जाये ? मगर गीतामें कुछ और ही देखते है । वहाँ तो असुरोका लक्षण बताते हुए पूरे सातवे श्लोकमे ईश्वरका नाम ही नहीं पाया है। प्रासुर-सम्पत्ति- वाले इस ससारके मूलमे ईश्वरको नही मानते यह बात सिर्फ आठवे श्लोकके पूर्वार्द्धके अन्तमे यो पाई जाती है कि देखो न, ये लोग ससारके मूलमे उसे नहीं मानते-"जगदाहुरनीश्वरम्"। इसके पहले सातवे मे 1
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