१६० गीता-हृदय - तो यही कहा है कि "असुर लोग तो क्या करे क्या न करे यह-कर्तव्या- कर्तव्य-जानते ही नहीं, उनमे पवित्रता भी नहीं होती और न उनका आचरण ही ठीक होता है । सत्यका तो उनमे नाम भी नही होता"- "प्रवृत्तिं च निवृत्ति च जना न विदुरासुरा । न शौच नापिचाचारो न सत्य तेषु विद्यते।" आठवेके शुरूमे भी कहा है कि “वे जगत्को बेबुनियाद और इसीलिये निष्प्रयोजन मानते है"--"असत्यमप्रतिष्ठन्ते जगदाहु ।" और जब ऐसी बात है तो फिर ईश्वरकी क्या जरूरत ? वह तो तभी होती जब यह ससार किसी खास मकसद या उद्देश्यको लेकर बनाया गया होता-बना होता। इसीलिये वे कहते है कि ईश्वरकी कोई जरूरत हई नहीं। समाजका कल्याण इस प्रकार हम देखते है कि अनीश्वरवाद या नास्तिकताको पीछे धकेल दिया गया है। उसे वह महत्त्व नहीं मिला है जो आमतौरसे दिया जाता है । गीताने तो महत्त्व दिया है उन्ही चीजोको जिनसे ससारके उत्थान-पतनका-इसकी उन्नति-अवनतिका-गहरा सम्बन्ध है। भले- बुरेकी पहचान होना, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्यको जानकारी, उत्तम आचरण, बाहर-भीतर पवित्रता और सच्चा व्यवहार—यही चीजें तो समाजको बुनियाद है । इनके बिना न तो हमी एक मिनट टिक सकते और न यह समाज ही चल सकता है। ईश्वरको आप मानिये, या मत मानिये । मगर ये चीजें मानिये खामखा। आपका अमल' अगर इन्हीके अनुसार हो तो हमें आपके अनीश्वरवादसे-~-आपकी नास्तिकतासे—कोई मतलब नही, उसकी पर्वा हम नहीं करते। हम जानते है कि उसका जहरीला डक खत्म हो गया है । फलत वह कुछ बिगाड नही सकती। आप तो पिंजडेमे बन्द पक्षी हो गये है इन्ही बातोके करते। इसलिये समाजकी ही गीत गायेंगे । न तो स्वच्छन्द उडान ही मार सकते और न मनचाही
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