पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/१६७

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१६२ गीता-हृदय कहनेके लिये तो लोग कहेंगे कि हम धर्मात्मा है, ईश्वरवादी है। मगर है ये लोग दरअसल पापात्मा और अनीश्वरवादी। नास्तिक लोग तो जवानसे ही ईश्वरकी सत्ता इनकार करते है। मगर ये भलेमानस तो अमली तौरपर उसे जहन्नुम पहुँचाते है । हम तो महान्से महान् नास्तिकोको जानते है जो अनीश्वरवादी तो थे, मगर जिनका आचरण इतना ऊँचा और लोकहितकारी था कि बडे-बडे पादरी, पडित और धर्म- वादी दातो तले उंगली दबाते थे। हिम्मत नही होती थी कि उनके विरुद्ध कोई यूँ भी करे, उँगली उठाये । मार्क्सवाद वैसे नास्तिकोको ही चाहता है जिनके कामसे आस्तिक लोग भी शर्मिन्दा हो जायें। वह बेशक उन धर्मात्मायोसे अपना और समाजका पिंड खामखा छुडाना चाहता है जो व्यवहारमें ठीक उलटा चलते है। हमें तो अमल चाहिये, काम चाहिये, न कि जबानी हिसाब और जमाखर्च । हम तो "कह-सुनाऊँ" नहीं चाहते, किन्तु "कर-दिखाऊँ" चाहते है। यदि गीताके सोलहवें अध्यायके ६-१८ श्लोकोपर गौर करें तो हमें पता चल जायगा कि जो धर्मके ठेकेदार आज जनताके हकोकी लडाईका विरोध करते फिरते है और इस मामलेमे धर्म और ईश्वरका ही सहारा लेते हैं उन्दीका चित्र वहाँ खीचा गया है। यह चित्र ऐसा है कि देखते ही बनता है। इसमे शक नहीं कि ६-१४ श्लोकोसे तो यह साफ पता नही चलता कि धर्मके ठेकेदारोका ही यह चित्रण है। मगर पन्द्रहवेके "यक्ष्ये दास्यामि" पदोसे, जिनका अर्थ है कि “यज्ञ करेंगे और दान देंगे" तथा “यजन्ते नामयजस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्” (१७)से तो यह बात बिल्कुल ही साफ हो जाती है। जहाँ पहले वचनोमे सिर्फ यज्ञ करने और दान देनेकी बात है तहाँ आखिरवाले तो साफ ही कहते है कि-"वे लोग दिखावटी यज्ञ स्याति आदिके लिये ही करते है । यज्ञोके विधि-विधानसे तो उन्हें कोई मतलब होता ही नहीं।" यह "अविधिपूर्वकम्" शब्द दूसरे