पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/१६८

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समाजका कल्याण मानीमें आई नही सकता है। यह इसीलिये धर्मके ठेकेदारोकी नकाब उतार फेकता है, इसमे शक नही । उनका चित्र खडा करना शुरू ही किया है यह कहते हुए कि “ससारके तो वे शत्रु ही होते है । फलत उसे चौपट करने के बडेसे बडे उग्र काम कर डालनेकी ताकत रखते है"-"प्रभवन्त्युग्रकर्माण क्षयाय जगतो- ऽहिता ।" ससारसे तात्पर्य यहाँ समाजसे ही है । वहाँ बताया गया है कि उनका तो काम ही है समाजको तहस-नहस करना। ऐसा करते हुए वे खुद भी चौपट हो जाते है । क्योकि समाजसे बाहर तो जा सकते नहीं। उनकी वासनाये तथा आकाक्षायें इतनी ज्यादा और बडी होती है कि उनकी पूर्ति हो सकती नही। उनका ठाटबाट और ढोग इतना ज्यादा होता है, गरूर इस कदर होता है और प्रभुत्व, प्रभाव या शक्तिका नशा ऐसा होता है कि कुछ पूछिये मत । जिद्दमें ही पडके अटसट कर बैठते है। उन्हें पवित्रताका तो कोई खयाल रहता ही नहीं। दुनिया भरकी फिक्र उन्हीके माथे सवार रहती है, ऐसा मालूम होता है । खूब चीजे प्राप्त करो और खामो, पिरो, मौज करो, यही उनका महामत्र होता है । जाने कितनी उमीदे उन्हे होती है। काम और क्रोध यही दो उनके पक्के और सदाके साथी होते है। विषयवासनाकी तृप्ति और शान बढाने के लिये वे हजार जुल्म और अत्याचार कर डालते है । बरावर यही सोचते रहते है कि अमुक काम तो हमने कर लिया, अब तो सिर्फ फलां फलाँ वाकी है । इतनी सम्पत्ति तो मिल चुकी ही है । मगर अभी तो कितनी ही गुनी हासिल करेगे | वहुत दुश्मनोको खत्म कर डाला है। बचे हुयोको भी न छोड़ेगे। हमी सबसे बडे है, महलोमे रहते है, जो चाहते है करके ही छोडते है । हमसे बडा ताकतवर है कौन ? सुखी भी तो हमी है । न तो हमसे बढके कोई धनी है और न सगी-साथियोवाला ही । हमारे मुकाविलेमे कौन खडा हो सकता है ? वे दिनरात खुद अपने -