१६४ गीता-हृदय ही मुंहसे अपनी बडाई करते रहते है । रुपये-पैसे, गरूर और नशाकी गर्मीमे ही चूर रहते है। यज्ञ और दान तो वे केवल दिखाने और ठगनेके ही लिये करते है। उनमें अहकार इतना ज्यादा होता है कि मत कहिये । वे अात्मा-परमात्माको तो समझते भी नहीं कि क्या चीज है-उनके नामसे ही उन्हें नफरत होती है। नतीजा यह होता है कि उनका पतन होता ही जाता है । अपर तो वे उठ सकते नही। दूसरे, तीसरे आदि जन्मोमें भी अधिकाधिक नीचे गिरते हो जाते है। ईश्वर या अात्मातक नकी पहुंच कभी होती ही नहीं।" इसी रूपमे असुरो या धर्मध्वजियोका चित्र गीताने सीचा है। १८वे और २०वे श्लोकमें एक बार फिर परमात्माका उल्लेख यद्यपि किया है। मगर वह है आत्माके रूपमें ही। चाहे ईश्वरके रूपमे भी मानें, तो भी जो कुछ उसके साथ-साथ कहा गया है उससे स्पष्ट है कि ऊपर लिसे आसुरी व्यवहारो और पाचरणोके करते ही उनकी परमात्मातक पहुँच हो पाती नहीं। इससे भी यही सिद्ध हो जाता है कि असल चीज श्राचरण ही है । २१, २२ श्लोकोमे तो खुलके कही दिया है और यह बात उपसहारकी है-कि "नर्फ या पतनके तीन ही रास्ते है जिन्हे काम, क्रोध और लोभ कहते हैं। ये तीनो आत्माको भी चौपट कर देते है। इसलिये इनसे अपना पिंड छुडाना जरूरी है । जहन्नुममें ले जानेवाले इन तीनोसे पल्ला छूटनेपर ही कल्याणकारी रास्ता सूझता और सदाचरण होता है। फिर तो हर तरहसे मौज ही मौज समझिये"-"विविध नर- नरकस्येद द्वार नाशनमात्मन । काम क्रोधस्तथालोभस्तस्मादेतत्त्रय त्यजेत् ॥ एतैविमुक्त कौन्तेय तमोद्वार स्त्रिभिर्नर. । पाचरत्यात्मन श्रेय- स्ततो याति परा गतिम् ॥" पाखिरमें कार्य-कार्य या कर्त्तव्य-अकर्तव्यके जानने और तदनुसार ही काम करनेका प्रादेश देके यह अध्याय पूरा किया गया है।
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