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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/१७३

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गीता-हृदय सफाई शायद ही कही मिलेगी। मगर एक बार भी उनमें धर्म शब्द नही आया है। खूबी तो यह कि उन्हीमे कर्म शब्द पूरे पाठ वार आया है। धर्म के बारेमें जिनका बडा जोर है उन्हें इस बातसे काफी धक्का लग सकता है कि जहाँ धर्म शब्दका बार-बार आना निहायत जरूरी था वहाँ उसे गीता भूलसो गई । और अगर ऐसे ही अवसरपर धर्मकी बात नही आती है, किन्तु उसकी जगह कर्म कहके ही सन्तोष किया जाता है, तो फिर यह कहनेकी गुजाइश रही जाती कहाँ है कि धर्म और कर्म दो चीजे है ? जो लोग फिर भी हठ करते रहे और ऐसा कहनेका साहस करे कि यद्यपि सभी धर्म तो कर्म ही होते हैं, तथापि सभी कर्म कदापि धर्म हो नही सकते, इसीलिये धर्मकी जगह कर्म कहके काम चलाया जा सकता है और यही बात यहाँ पाई जाती है, उनके लिये कोई भी समझदारीकी वात क्या कही जाय ? योही कभी-कभी धर्मका नाम ले लेना और हर विशेष अवसरपर वारवार कर्मका ही जिक्र करना, जबकि धर्मका उल्लेख ज्यादा मौजूं और उचित होता, क्या यह बात नहीं बताता कि गीता इस झमेलेसे हजार कोस दूर है ? यदि धर्मका नाम कही-कही आ गया भी है तो योही, न कि किसी खास अभिप्रायसे, यही कथन ज्यादा युक्तियुक्त प्रतीत होता है। यह ठीक है कि एकाध जगह धर्म शब्दसे ही काम निक- लता देख और कर्म कहने में दिक्कत या कठिनाई समझके गीताने धर्म- शास्त्रोके अर्थमें ही धर्म शब्द कहा है । मगर वह ज्योंका त्यो बोल दिया गया है, न कि प्रतिपादन किया गया है कि धर्म खास चीज है। जैसा कि "स्वधर्ममपि चावेक्ष्य" (२।३१) मे पाया जाता है । और जव दूसरे अध्यायमें योगका सिद्धान्त एव स्वरूप बताते समय, तीसरे अध्यायमें यज्ञकी महत्ता दिखाते वक्त, चौथेमें यज्ञका विस्तार एव विवरण बताते समय और अठा- रहमें अपने-अपने (स्व) धर्मोके रूपमे ही कैसे भगवत्पजा होती है यह