पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/१७४

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कर्म और धर्म सिद्ध करते समय भी सिर्फ कर्मकी ही चर्चा आती है, न कि धर्मकी एक वार भी, तो गीतामे प्रतिपादन किसका माना जाय ? वहाँ रहस्य और सिद्धान्त किसके सम्बन्धका बताया गया माना जाय ? धर्मका या कर्मका ? अगर कर्मका, क्योकि धर्मका कहनेकी तो कोई भी गुजाइश हई नहीं, तो फिर अन्ततोगत्वा यही बात रही कि गीताने धर्म और कर्ममें कोई भी अन्तर नही किया है। उसने कर्मके ही दार्शनिक विवेचनसे सन्तोष करके दिखा दिया है कि असली चीज कर्म ही है। एक वात और भी है। गीताने बारवार कहा है कि कर्मोसे ही वन्धन होता है और उसीसे छुटकारा मिलनेको मुक्ति कहते है । अर्जुनने इसी बन्धनके डरसे ही तो आगा-पीछा किया था। यदि दूसरे अध्यायके ३८वे श्लोकसे शुरू करके देखे तो प्राय हरेक अध्यायमे वारवार कर्मकी इस ताकतका और उससे छुटकारा पानेकी हिकमतका जिक्र मिलेगा। चाहे उस हिकमतको योग कहे, निर्लेपता कहें, अनासक्ति कहे, समत्व बुद्धि कहें, या इन सबोको मिलाके कहे, यह बात दूसरी है। मगर यह तो पक्की चीज है कि बारबार यही बात शुरूसे अन्ततक आई है । अर्जुनकी धारणा कुछ ऐसी थी कि धर्म उन कामोको ही कहते है जिनमें कोई भी बुराई न हो, जिनसे स्वजन-बध आदि सभव न हो, जैसा ध्यान, समाधि, पूजा आदि। उसका यह भी खयाल था कि जिसके करते बुराई हो, हत्या हो या इसी तरहकी और बात हो वह धर्म माना जानेपर भी वस्तुगत्या अधर्म-धर्म विरोधो-ही है । युद्धसे विरक्त होने और लम्बी-चौडो दलीले पेश करनेका उसका यही मतलब था। दूसरा मतलब हो भी क्या सकता था ? इसका उत्तर भी कृष्ण ने साफ ही दे दिया कि "सहज कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् । सरिभा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता (१८।४८), "श्रेयान्स्वधर्मों विगुण" (३३३५, १८:४७),-"बुराई- भलाई तो सर्वत्र मिली हुई है। ऐसा काम हो नहीं सकता जिससे बुराई