१७७ - जोपयोगी कामोको उसी व्यापक एव उदार बुद्धिसे धर्म समझके ही कराया जा सकता है। गीताके इस ढगसे कर्त्तव्यके ससारमे बहुत बडा लाभ हो जाता है। मगर दूसरा और असली महत्त्वपूर्ण लाभ इससे यह होता है कि धर्मके नामपर धर्मशास्त्रो, धर्मशास्त्रियो तथा धर्माचार्योंका जो नाहकका नियत्रण लोगोकी समझ और उनके कामोपर रहा करता है वह खत्म हो जाता है । जब धर्म अत्यन्त व्यापक बन जाता है, जब सभी काम उसमे आ जाते है तब धर्मके ठेकेदारोकी गुजाइश रही कहाँ जाती है ? जवतक कोई खास चीज और कुछ चुनी-चुनाई बाते न हो तबतक उन्हे पूछे कौन ? जीवनके हरेक काममे कौन किससे पूछने जाता है ? किस धर्माचार्यकी जरूरत इस बात के लिये होती है कि हम कैसे आगे- पीछे पाँव दे, कैसे साँस ले, कैसे खानेमे मुँह चलाये, कैसे दाँतोसे अन्नको खूब चबाये, कैसे कपडे पहने, आदि-आदि ? ये बाते पूछना असभव भी तो है। हाँ, स्वास्थ्यशास्त्रो और ऐसी ही दूसरी पोथियोकी सहायतासे इन्हे भले ही जान ले सकते है। मगर ऐसा तो नही होगा कि सालमे एक या दो-चार गुरु और पीर या पडित-पुरोहित इन्हीके लिये खास तौरसे आया करेगे और 'पूजा' लिया करेगे, ठीक जैसे एकादशी, रोजा आदिके सिलसिलेमे आते ही रहते है। तब तो रोजा, नमाज, सध्या, पूजा वगैरह भी साँस लेने आदिकी ही श्रेणीमे आ जायँगे और वहाँसे भी धर्मध्वजियोकी बेदखली होई जायगी, चाहे देरसे हो या सबेरे । तीसरी बात यह होगी कि जब हम हरेक बातको धर्मके फन्देसे निकालके व्यावहारिक और सामाजिक दुनियामे ला देगे तो उसके भले-बुरेपनकी जाँच स्वर्ग और नर्ककी दृष्टिसे न करके देखेंगे कि इससे अपना और समाज- का भौतिक लाभ क्या है, इससे सामाजिक, वैज्ञानिक या सास्कृतिक विकास- में कहाँतक फायदा पहुँचता है, समाजके स्वास्थ्यकी उन्नति इससे कहाँतक १२
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