१७८ गीता-हृदय . होती है। विना इस व्यावहारिक दृष्टिके ही तो सब गुड गोबर हो रहा है।' नहानेमें भी जव धर्मकी बात घुसती है तो उससे शरीर या वस्त्रादिकी स्वच्छता न देखके स्वर्ग-नर्कको ही देखने लगते है । जैसे ऊँटकी नजर हमेशा पश्चिम- के रेगिस्तानकी ही तरफ होती है, ऐसा कहा जाता है, ठीक उसी तरह हमें हर काममे ठेठ स्वर्ग, बैकुण्ठ या नर्क ही सूझता है। इस पतनका कोई ठिकाना है । इस अन्वी धर्मबुद्धिने हमें-मानव-समाजको-निरा भोदू और बुद्धिहीन बना डाला है, मैशीन करार दे दिया है । गीताका यह रास्ता इस बलासे हमारा निस्तार कर देता है और हमें आदमी बना देता है। चौथो और आखिरी बात यह होती है कि कर्म मले है या बुरे, इनके करते हम नकमे जायँगे या स्वर्गमे, आदि वातो और प्रश्नोका भी निर्णय जो अबतक पडितो एव मौलवी लोगोके हाथोमें रहा है उसे गीता इस प्रकार उनसे छीन लेती और इन्हें ऐसी कसौटीपर कसती है जो सर्वत्र सुलभ हो, जिसे हम खुद हासिल कर सकते है, यदि चाहें । अबतक तो धर्मके नामपर फैसला करनेवाले पडित आदि ही थे। मगर अब जब धर्म हो गया कर्म और कर्मके जाँचने की एक दूसरीही कसौटी गीताने तैयार कर दी, जो दूसरेके पास न होके हरेक आदमीके पास अपनी-अपनी अलग होती है, तो फिर पडितो और मौलवियोको कौन पूछे ? यह भी नहीं कि दूसरेको कसोटी- गैरकी तराजू-दूसरेके काम आये । यहाँ तो अपनी-अपनी ही बात है। यहाँ "अपनी-अपनी डफली, अपनी-अपनी गीत" है। फलत परमुखा- पेक्षिताके लिये स्थान रही नहीं जाता। सोलह आना स्वावलम्बन ही उसको जगह ले लेता है। तब धर्मके नामपर झमेले और झगडे भी क्यो होगे गीताका साम्यवाद गीतामे समता या साम्यवादकी भी बात है और उसे लेके बहुत लोग मार्क्सवादी साम्यवादको खरी-खोटी सुनाने लगते है। उनके जानते 1 ?
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