पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/१९०

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रसका त्याग १८५ घर या समाजमे घुसता है तो एक प्रकारका पातक छा जाता है, चारो ओर परीशानी छा जाती है और वह छूतकी बीमारी जाने कितनोको तबाह करती है। मनपर अपनी मुहर लगाके जब भौतिक पदार्थ उसी रूपमे मनके साथ भीतर--शरीरमे-घुसते है तो ठीक सक्रामक रोगकी सी बात हो जाती है और भीतरकी शान्ति भग हो जाती है। वह मन अग-प्रत्यगमें अपनी उस छापका असर डालता है। या यो कहिये कि मनके द्वारा बाहरी भौतिक पदार्थ ही ऐसा करते है । फलत हृदय या दिल पूर्ण रूपसे प्रभावित हो जाता है। दिलका काम तो खोद-विनोद करना या जानना है नही। वह तो ऊँटकी पकड पकडता है । जब उसपर भौतिक पदार्थोका प्रभाव इस प्रकार हुआ तो वह उन्हे जैसेका तैसा पकड लेता और परीशान होता है। यदि उसमे विवेक शक्ति होती तो उनसे भाग जाता। मगर सो तो है नही, और जिस मन और बुद्धिमे यह शक्ति है उनने तो खुद ही यह काम किया है--बाहरी पदार्थोंको भीतर पहुँचाया है, या कमसे कम उनके कीटाणुओको ही। फिर हो क्या ? पहले भी कहा जा चुका है कि भौतिक पदार्थ खुद कुछ कर नही सकते-ये बुरा-भला कर नही सकते, सुख-दु ख दे नही सकते । किन्तु मनमे जो उनका रूप बन जाता है वही सुख-दुःखादिका कारण होता है । इस बातका विशेष रूपसे विवरण ऊपरकी पक्तियोसे हो जाता है। जब मनपर भौतिक पदार्थोंकी छाप पडती है तो उसमें एक खास दात पाई जाती है। पहले भी कहा जा चुका है कि उदासीन या लापर्वाह आदमीको ये पदार्थ बुरे-भले नहीं लगते। क्योकि उसके मनपर इनकी मुहर लग पाती नही। उसका मन बेलाग जो होता है। जिनके मनमे लाग होती है, जिसे लस बोलते है, उन्हीकी यह दशा होती है। इसी लागको ताने रस कहा है “रसवर्ज रसोऽप्यस्य" (२०५६) श्लोकमे । रागद्वेष या काम, क्रोधके नामसे भी इसी चीजको दार-बार याद किया है । यही लाग