गीता-हृदय 1 या रागद्वेष-रस-सब तूफानोका मूल है। यदि यह न हो तो सारी बला खत्महो जाय । गीताने इस रसको खत्म करने पर इसीलिए काफी जोर भी दिया है। अब हालत यह होती है कि भौतिक पदार्थोके इस प्रकार भीतर पहुँ- चते ही मै, मेरा, तू, तेरा, अपना-पराया, शत्रु-मित्र, हित-अहित, अहन्ता- ममता आदिका जमघट लग जाता है-भीतर इनका बाजार गर्म हो जाता है। जैसे मासका टुकडा देखते ही, उसकी गन्ध पाते ही गीध, चील, कौवे आदि रक्तपिपासु पक्षियोकी भीड लग जाती है और वे इर्द-गिर्द मॅड- राने लगते है, ठोक बही बात यहाँ भी हो जाती है। मै-तू, मेरा-तेरा, शत्रु-मित्र आदि जो जोडे है द्वन्द्व है-वे जमके एक प्रकारका आपसी युद्ध-एक तरहको कुश्तो |-~मचा देते है और कोई किसीकी सुनता नहीं। ये द्वन्द्व होते है बडे ही खतरनाक । ये तो फौरन ही आपसमें हाथापाई शुरू कर देते हैं। पहलवानोकी कुश्तीमें जैसे अखाडेकी धूल उड जाती है इनकी कुश्तीमे ठीक उसी प्रकार मनुष्यके दिलकी दुर्दशा हो जाती है, एक भी फजीती बाकी नहीं रहती। फिर तो सारे तूफान शुरू होते है। इसीके बाद बाहरी लडाई-झगडे जारी हो जाते है, हाय-हाय मच जाती है। बाहरके झगडे-झमेले इसी भीतरी कुश्तम-कुश्ताके ही परिणाम है । नतीजा यह होता है कि मनुष्यका जीवन दुखमय हो जाता है । क्योकि इन भीतरी कशमकशोका न कभी अन्त होता है और न बाहरी शान्ति मिलती है । भीतर शान्ति हो तब न बाहर होगी? गीताके आध्यात्मिक साम्यवादकी आवश्यकता यहीपर होती है। वह इसी भीतरी कशमकश और महाभारतको मिटा देता है, ताकि बाहर- का भी महायुद्ध अपने आप मिट जाये । ज्योही मन बाहरी पदार्थोकी छूत भीतर लाये या लानेकी कोशिश करे, त्योहो उसका दर्वाजा बन्द कर देना यही उस साम्यवादका दूसरा पहलू है। इसके दोई उपाय है । या
पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/१९१
दिखावट