मस्ती और नशा १८७ तो मनमे भौतिक पदार्थोकी छूत लगने पाये ही न, जैसा कि समदर्शनवाले पहलूके निरूपणके सिलसिलेमे कहा जा चुका है । तब तो सारी झझट ही खत्म हो जाती है । और अगर लगने पाये भी, तो भीतर घुसते ही मनको ऐसी ऊँची सतह या भूमिकामे पहुँचा दे कि वह अकेला पड जाय और कुछ करी न सके , जिम प्रकार छूतवालेको दूरके स्थानमे अलग रखते है जबतक उसकी छूत मिट न जाये। मनको ध्यान, धारणा या चिन्तनकी ऐसी ऊँची एव एकान्त अट्टालिकामे चढा देते है कि वह और चीजे देख सकता ही नहीं। अगर उसे किसी चीजमे फंसा दे तो दूसरीको देखेगा ही नही। उसका तो स्वभाव ही है एक समय एक हीमे फँसना । कहते है कि व्रजमे गोपियोको जब ऊधवने ज्ञान और निराकार भगवानके ध्यानका उपदेश दिया तो उनने चट उत्तर दे दिया कि मन तो एक ही है और वह चला गया है कृष्णके साथ। फिर ध्यान किससे किया जाय ? "इक मन रह्यो सो गयो स्याम सग कौन भज जगदीस ?" यही बात यहाँ हो जाती है और मारी वला जाती रहती है। मस्ती और नशा दूसरा उपाय मनकी मस्ती है, पागलपन है, नगा है। चौबीसो घटे वेहोशी बनी रहती है। जिसे प्रेमका प्याला या शौककी शराव कहा है उसीका नशा दिनरात बना रहता है। बाहरी ससारका खयाल कभी आता ही नहीं। असलमे तो यह बात होती है हृदयमे, दिलमे । यह मस्ती मनका काम न होके दिलकी ही चीज है । मन तो वडा ही नोच है, लपट है। उसे तो किसी चीजमे जबर्दस्ती वाँध रखना होता है । मगर दिल तो गगाकी धारा है, वहता दर्या है जिसका जल निर्मल है। उसीमे यह मस्ती आती है, यह पागलपन होता है, यह नशा रहता है और वही मनको मजबूर कर देता है कि चुपचाप बैठ जाये, नटखटी या शैता- . ,
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