मस्ती और नशा १८६ ? तो जड ही कट गई। वह तो भीतरी घमासानका ही प्रतिबिम्ब होता है न दूसरे अध्यायमे सुख-दुःखादि परस्पर विरोधी जोडो-द्वन्द्वो-को सम करनेकी जो बात “सुखदु खे समेकृत्वा" (२।३८) आदिके जरिये कही गई है और “सिद्धयसिद्धयो समो भूत्वा" (२०४८) मे जो कामके वनने-बिगडनेमे एक रस-लापर्वा-बने रहनेकी बात कही गई है, वह यही मस्ती है। चौथे अध्यायके "सम सिद्धावसिद्धौ च" (२२) में भी यही चीज पाई जाती है। छठेके "लोहा, पत्थर, सोनाको समान समझता है"-"समलोष्ठाश्मकाञ्चन" (८) का भी यही अभिप्राय है। नवेमे जो यह कहा है कि "मैं तो सबके लिये समान हूँ, न मेरा शत्रु है न मित्र"-"समोऽह सर्वभूतेषु नमे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय" (२६) वह भी इसीका चित्रण है। बारहवेमे जो "अहन्ता-ममतासे शून्य, क्षमाशील और सुख-दु खमे एकरस"-"निर्ममो निरहकार सम- दुःखसुख क्षमी" (१३), कहा है तथा जो “शत्रु-मित्र, मान- अपमान, शीत-उष्ण, सुख-दुःखमे एकसाँ लापर्वा रहे और किसी चीजमे चिपके नही--"सम शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयो । शीतोष्णसुखदु खेषु सम सगविवर्जित (१८) कहा है, वह इसी चीजका विवरण है। चौदहवेके २४, २५ श्लोकोमे “समदुःखसुख स्वस्थ " आदि जो कुछ कहा है वह भी यही चीज है । यहाँ जो "स्वस्थ." कहा है उसका अर्थ है "अपने आपमे स्थिर रह जाना।" यह उसी मस्ती या पागलपनकी दशाकी ही तरफ इशारा है। अठारहवे अध्यायके ५४वे श्लोकमे भी इसी बातका एक स्वरूप खडा कर दिया है "ब्रह्मभूत प्रसन्नात्मा" अगदि शब्दोके द्वारा। यो तो जगह- जगह यही बात कही गई है, हालाँकि सर्वत्र सम शब्द नही पाया . जाता।
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