१६० गीता-हृदय 1 1 . ज्ञानी और पागल जनसाधारणको यह सुनके आश्चर्य होगा कि यह क्या बात है कि जो परले दर्जेका तत्त्वज्ञानी हो वही पागल भी हो और बाहरी सुव-वुध रखे ही न । मगर बात तो ऐसी ही है। वामदेव, जडभरत आदिकी ऐसी बाते बराबर कही जाती है भी। यही नहीं कि हिन्दुओके ही यहां यह चीज पाई जाती है, या गीताने ही यही बात “या निशा सर्वभूताना" (२।६६) मे कही है, या सुरेश्वराचार्यने अपने वात्तिकमे खुलके कह दिया है कि "बुद्धतत्त्वस्य लोकोऽय जडोन्मत्तपिशाचवत् । बुद्धतत्त्वोऽपि लोकस्य जडोन्मत्तपिशाचवत्"-"पहुँचे हुए तत्त्वज्ञानीकी नजरोमें यह सारी दुनिया जड, पागल और पिशाच जैसी है और दुनियाकी नजरोमे वह भी ऐसा ही है।" किन्तु प्राचीनतम ग्रीक विद्वान अरिस्टाटिल (अरस्तू)ने भी प्राय ढाई हजार साल पूर्व यही बात अपनी पुस्तक "जीवनकी बुद्धिमत्ता" (Wisdom of life) मे यो कही है - "Men distinguished in philosophy, politics, poetry or art appear to be all of a melancholy temperament (page 19) "By a diligent search in lunatic asylums I have found individual cases of patients who were unquestionably endowed with great talents, and whose genius distinctly appeared through their madness (1,247) "जिन लोगोने दर्शन, राजनीति, कविता या कलामे विशेषज्ञता प्राप्त की है उन सबोका ही स्वभाव कुछ मनहूस जैसा रहा है।" "पागल- खानोमें यत्नपूर्वक अन्वेषण करनेपर हमने ऐसे भी पागल पाये है जिनका
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