तब और अब १६५ वक्ता कुशलोऽस्य लब्धाऽऽश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्ट." (१।२।७) । यही बात ज्योकी त्यो गीताने भी कुछ और भी विशद रूपसे इसकी अस- भवताको दिखाते हुए यो कही है कि "आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्य- वद्वदति तथैव चान्य । आश्चर्यवच्चन मन्य शृणोति श्रुत्वाप्येन वेद न चैव कश्चित्" (२।२६)। पहले भी तो इस चीजकी अव्यावहारिकताका वर्णन किया जाई चुका है। आमतौरसे सासारिक लोगोके लिये तो यह चीज पुराने युगमे भी कठिन- तम थी-प्रायः असभव थी ही। मगर वर्तमान समयमे तो एकदम असभव हो चुकी है। जो लोग इसकी बार-बार चर्चा करते तथा मासके भौतिक साम्यवादके मुकाबिलेमे इसी आध्यात्मिक साम्यवादको पेश करके इसीसे लोगोका सन्तोष करना चाहते है वे तो इससे और भी लाखो कोस दूर है। वे या तो पूँजीवादी और जमीदार है या उनके समर्थक और इष्ट-मित्र या सगी-साथी । क्या वे लोग सपनेमे भी इस चीजकी प्राप्तिका खयाल कर सकते है, करते है ? क्या वे मेरा-तेरा, अपना-पराया, शत्रु-मित्र, हानि- लाभ आदिसे अलग होनेकी हिम्मत जन्म-जन्मान्तरमे भी कर सकते है ? क्या यह बात सच नही है कि उनको जो यह भयका भूत सदा सता रहा है कि कहीं भौतिक साम्यवादके चलते उन्हें सचमुच हानि-लाभ, शत्रु- मित्र आदिसे अलग हो जाना पड़े और सारी व्यक्तिगत सम्पत्तिसे हाथ धोना पड जाय, उसीके चलते इस आध्यात्मिक साम्यवादकी ओटमे अपनी सम्पत्ति और कारखानेको बचाना चाहते है ? वे लोग बहुत दूरसे घूमके आते है सही। मगर उनकी यह चाल जानकार लोगोसे छिप नही सकती है। ऐसी दशामे तो यह बात उठाना निरी प्रवचना और धोकेबाजी है। पहले वे खुद इसका अभ्यास कर ले। तब दूसरोको सिखायें। "खुदरा फजीहत, दीगरे रा नसीहत" ठीक नही है । मुकाबिला भी वे करते है किसके साथ ? असभवका सभवके साथ,
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