पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/१९९

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१६६ गीता-हृदय अनहोनीका होनीके साथ । एक ओर जहाँ यह आध्यात्मिक साम्यवाद बहुत ऊँचा होनेके कारण आम लोगोके पहुंचके वाहरकी चीज है, तहाँ दूसरी ओर भौतिक साम्यवाद सर्वजनसुलभ है, अत्यन्त आसान है। यदि ये भलेमानस केवल इतनी ही दया करें कि अडगे लगाना छोड दें, तो यह चीज वातकी बातमें ससार व्यापी बन जाय । इसमें न तो जीते जी मुर्दा बननेकी जरूरत है और न ध्यान या समाधिकी ही । यह तो हमारे आये दिनकी चीज है, रोज-रोजकी बात है, इसकी तरफ तो हम स्वभावसे ही झुकते है, यदि स्थायी स्वार्थ (Vested interests)वाले हमें वहकायें और फुसलायें न । फिर इसके साथ उसकी तुलना क्या? हाँ, जो सासारिक सुख नही चाहते वह भले ही उस ओर खुशी-खुशी जायें। उन्हे रोकता कौन है ? वल्कि इसी साम्यवादके पूर्ण प्रचारसे ही उस साम्यवादका भी मार्ग साफ होगा, यह पहले ही कहा जा चुका है । यज्ञचक्र गीतामें यज्ञ और यज्ञचक्रकी भी बात आई है । यो तो हिन्दुओकी पोथियोमें इस बातकी चर्चा भरी पडी है । उपनिषदोमें भी यह बात कुछ निराले ढगसे ही आई है। मगर गीताका ढग कुछ दूसरा ही है, जो ज्यादा व्यावहारिक एव आकर्षक है । उपनिषद् रूपकके ढगसे यज्ञ और हवनका पालकारिक वर्णन करते है और धर्मशास्त्र या पुराण इन्हें स्वर्ग, नर्क या मुक्ति और वैकुठके ही लिये करनेकी आज्ञा देते है । उनने यज्ञोको पूरा धार्मिक रूप दे दिया है। फिर तो स्वर्ग-नर्ककी बात आई जाती है और हुक्म या प्राज्ञा (Order or command) की भी जरूरत होई जाती है। हाँ, मनुस्मृतिमें "अग्नी प्रास्ताऽहुति सम्यगादित्यमुपतिष्ठते । आदित्याज्जायते वृष्टिवृष्टेरन्न तत प्रजा" (३१७६) वचन पाया है। इसमें गीताकी बातोका कुछ स्थूल आभास पाया जाता है। यह श्लोक