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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२०१

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१९८ गीता-हृदय वह वात भी इसी सिलसिले में श्राई हो । मगर हमें तो उतने गहरे पानी उतरना है नहीं। हम तो गीताकी ही बात देखना चाहते हैं। इससे पहले कि हम इस यज्ञ के बारेमें गीताका मन्तव्य या उसकी विशेषता बतायें यह जान लेना आवश्यक है कि गीतामें कहाँ-कहां यज्ञका जिक है और किस प्रसगमे । यो तो यज्ञके बारेमें गीताका एक रुख और भाव हम बहुत पहले वता चुके है और कह चुके हैं कि उसमें क्या खूबी है। मगर यहाँ उसके दूसरे ही पहलूका वर्णन करना है। इस विवेचनसे पहले कही गई वातपर भी काफी प्रकाश पड जायगा । गीताकी यह यज्ञ वाली वात जो अपना निरालापन रखती है उसे भी हम वखूबी जान सकेंगे। गीतामे तीसरे ही अध्यायसे यज्ञकी वात शुरू होके चौथेमे उसका खूब विस्तार है। पांचवेमें भी यज्ञ शब्द अन्तके २६वें श्लोकमें आया है। सिर्फ छठेमे वह पाया नही जाता। फिर लगातार सात, पाठ, नौ, दस, ग्यारह और वारह अध्यायोमें यज्ञकी वात आती है। यह ठीक है कि बारहवेंमे यज्ञ शब्द नही आता मगर तीसरे अध्यायमें 'यज्ञार्थ' (३।६) शब्द आया है और "अह ऋतुरह यज्ञ" (३।१६) में भगवानको ही यज्ञ कहा है । "यज्ञाना जपयज्ञोऽस्मि" (१०।२५)मे भी भगवानको ही जप यज्ञ कहा है। फिर बारहवेंके १०वें श्लोकमे 'सत्कर्म', तथा 'मदर्थ कर्म' शब्द आये है। इसीलिये उसे भी यज्ञ ही माना है। बीचवाले १३, १४, १५ अध्यायोमें यज्ञकी चर्चा नही है। उसके वाद १६, १७, १८में स्थान-स्थानपर पाई है। इससे स्पष्ट है कि गीताकी दृष्टिसे यज्ञकी महत्ता बहुत है, और है वह व्यापक चीज। गीताकी खास-खास वातोमें एक यह भी है। अब जरा उसके स्वरूपका विचार करें। सबसे पहले तीसरे अध्यायके ६-१६ श्लोकोको ही लें। इन पाठ श्लोकोमें यज्ञ और यज्ञचक्रकी वात आई है। यहां यज्ञका कोई भी व्योरा नहीं दिया गया है और न उसका