पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२०२

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यज्ञचक्र १६६ विशेष विश्लेषण ही किया गया है। केवल इतना ही कहा गया है कि "जो कर्म यज्ञके लिये हो उससे बन्धन नहीं होता है, किन्तु और और कर्मोसे ही",-"यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽय कर्मबन्धन" (३६) । इसके बाद यज्ञको प्राणियोके लिये जरूरी और कल्याणकारी कहके १४-१६ श्लोकोमे एक शृखला ऐसी बनाई है जो चक्रकी तरह गोल होजाती है और उसके चमे यज्ञ आ जाता है। इसीको यज्ञचक्र कहके इसे निरन्तर चालू रखनेपर बडा ही जोर दिया है । १३वे तथा १६वे श्लोकोमे यज्ञ न करनेवालोकी सख्त शिकायत भी की गई है। यहांतक कह दिया है कि जो इस चक्रको निरन्तर चालू न रखे वह पतित तथा गुनहगार है और उसका जीना बेकार है। चौथे अध्यायकी यह दशा है कि उसके २३-३३ श्लोकोमे यज्ञका बहुत ज्यादा ब्योरा दिया गयाहै। इन ग्यारह श्लोकोमे जो पहला-२३वा- है उसमे तो वही बात कही गई है जो तीसरेके हवेमे कि "यज्ञार्थ कर्म सोलहो आना जडमूलसे विलीन हो जाता है। फिर बन्धनमें कौन डालेगा?" "यज्ञायाचरत कर्म समग्न प्रविलीयते।" इसके बाद यज्ञोकी किस्मे २४वेंसे शुरू होके ३३३तक बताई गई है। बीचके ३१वेमे तो यहाँतक- साफ कह दिया है कि "जो यज्ञ नही करता उसका दुनियाबी कामतक तो चली नही सकता, परलोककी बात तो दूर रहे"--"नाय लोकोऽस्त्य- यज्ञस्य कुतोऽन्य. कुरुसत्तम।" इससे एक तो यज्ञकी व्यापकता तथा समाजोपयोगिता सिद्ध होती है-यह बात पक्की हो जाती है कि वह समाजको कायम रखनेके लिये अनिवार्य है। दूसरे यह कि पूर्वके सात श्लोकोमें जिन यज्ञोको गिनाया है वह केवल नमूनेकी तौरपर ही है। इसीलिये २८वे श्लोकमें गोल-गोल बात ही कही भी गई है कि-"द्रव्योंसे सम्बन्ध रखनेवाले, तप-सम्बन्धी, योग-सम्बन्धी, ज्ञान-सम्बन्धी और सद्ग्रन्थ- सम्बन्धी अनेक यज्ञ है"-"द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथाऽपरे। स्वा-