पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२०६

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यज्ञचक्र २०३ १६वें श्लोकमे भी कुछ ऐसी बात कही गई है जिससे पता चलता है कि उसमे भी यज्ञकाही निरूपण है । भगवानको तो उससे पूर्वके १६वे श्लोकमे यज्ञ कहा ही है। मगर इसमे जो यह कहा गया है कि "मै ही वर्षा रोकता हूँ और उसे जारी भी करता हूँ"--"अह वर्ष निगृह्णाम्युत्सृजामि च", उससे पता चलता है कि यज्ञका ही उल्लेख है। क्योकि तीसरे अध्यायमें तो कही दिया है कि "यज्ञसे ही वृष्टि होती है"-"यज्ञाद्भवति पर्जन्य.।" 'उत्सृजामि' शब्दका अर्थ है उत्सर्ग या छोडना-बाधा हटा देना । आठवेंमे जो विसर्ग कहा गया है वही है यह उत्सर्ग। यज्ञोसे वृष्टिकी बाधा हटके पानी वरसता है। नवे अध्यायके अन्तके ३४वे श्लोकमें भी "मद्याजी" शब्द मिलता है, जिसका अर्थ है "मेरा-भगवानका--यज्ञ करनेवाला- भगवत्पूजक"। इसी श्लोकके प्राय तीन चरण १८वे अध्यायके ६५वे श्लोकमे भी ज्योके त्यो पाये जाते है। अर्थ भी यही है। दसवे अध्यायके तो केवल २५वे श्लोकमे जप यज्ञकी बात आई है। इसके बारेमें हम भी इस प्रसगके शुरूमे ही कह चुके है। ग्यारहवे अध्यायके "नवेदयज्ञाध्ययनैर्नदान.” (४८), तथा “नदानेन नचेज्यया" (५३) श्लोकोमे यज्ञ और इज्या शब्द आये है। इज्याका वही अर्थ है जो यज्ञका। यहाँ केवल यज्ञका उल्लेख है । कोई खास बात नही है.। बारहवेके १०वे श्लोकमे 'मदर्थ' या भगवानके लिये किये जानेवाले कर्मोका उल्लेख है और यज्ञार्थ कर्मकी बात तो कही चुके है। इसीलिये वहाँ भी यज्ञकी ही बात है। सोलहवे अध्यायमे यज्ञका जिक्र है केवल १५वे तथा १७वे श्लोकोमें। यह वात बहुत अच्छी तरह ईश्वरवादके प्रसगमे लिखी जा चुकी है। हाँ, सत्रहवे अध्यायमे यज्ञकी बात बार-बार अनेक रूपमे आई है। पहले और चौथे श्लोकमे श्रद्धापूर्वक यज्ञादि करने और सात्त्विक यज्ञोका साधा- रण उल्लेख है । कोई विवरण नहीं है। हाँ, इतना कह दिया है कि