पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२०७

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२०४ गीता-हृदय कैसोकी यज्ञपूजा किस प्रकार की होती है । यज्ञके सात्त्विक आदि तीन प्रकार यजनीय और पूजनीय पदार्थोके ही हिसावसे बताये गये है। फिर आगेके ११-१३-तीन-श्लोकोमे यज्ञके कर्ताके अपने ही भावो और विचारोके अनुसार यज्ञके वही सात्त्विक आदि तीन भेद बताये गये है। इसके बाद २३-२५-तीन-श्लोकोमे और कुछ न कहके यज्ञादि कर्मोकी त्रुटियोके पूरा करनेका सीधा उपाय बताया गया है कि श्रद्धाके साथ-साथ यदि प्रोतत्सत् बोलके उन्हें किया जाय तो उनमें अधूरापन रही नहीं जाता-वे सात्त्विक बन जाते हैं। यही बात २७, २८ श्लोकोमे भी पाई जाती है । २८वेमें हुत शब्दका अर्थ यज्ञ ही है। २७वेका 'तदर्थीयकर्म' भी इसी मानीमे पाया है। यज्ञार्थ और तदर्थ एक ही चीज है । अठारहवे अध्यायके ६५वेके सिवाय ७०वे श्लोकमें भी ज्ञानयज्ञका उल्लेख है । गीताके उपसहारमें ज्ञानयज्ञका नाम लेना कुछ महत्त्व रखता है। पहले भी तो कही चुके है कि और यज्ञोसे ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है। वही वात यहाँ याद हो पाई है। खूवी तो यह है कि उस श्लोकमें गीताके पढ़ने- वालेको ही कहा है कि वही ज्ञानयज्ञके द्वारा भगवानकी पूजा करता है। इस प्रकार पठन-पाठनको ज्ञानयज्ञके भीतर डालके गीताने सुन्दर पथ- प्रदर्शन किया है। यज्ञका अर्थ समझनेके लिये कुजी भी दे दी है। इस अध्यायके प्रांरभके ३, ५, ६ श्लोकोमे भी यज्ञ, दान, तप इन तीन कर्मोका बार-बार उल्लेख किया है और कहा है कि ये बुनियादी कर्म है। इन्हें किसी भी दशामें छोड नहीं सकते। इस तरह यज्ञका महत्त्व सिद्ध कर दिया है। इतनी दूरतक गीताके यज्ञका सामान्य तया विशेष विचार कर लेनके वाद अव हमें मौका मिलता है कि उसकी तहमें घुसके देखें कि यह क्या चीज है। तीमरे अध्यायमें जो यज्ञचक्र वताया गया है वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। उसमे इस मामलेपर काफी प्रकाश पडता है। इसलिये पहले उसे