पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२०९

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? २०६ गीता-हृदय इम चक्रमे इसका उत्तर नहीं मिलता है। दूसरी बात यह है कि हमे तो अपने ही दिल-दिमागके अनुसार कर्मोके करनेका हक है, गीताका यह सिद्धान्त बताया जा चुका है। इस चक्रमे यह बात भी साफ हो पाती नहीं और इसके विना काम ठीक होता नही । इसीलिये तीसरे अध्यायमे उस शृखलामें दो लडे और भी जुटी है जो इस कमीकी पूत्ति कर देती है । दोई कमियाँ थी और दो लडें जुट गई। वहाँ कहा गया है कि अक्षरसे ब्रह्म और ब्रह्मसे कर्म पैदा होता है। कर्मका तो यज्ञके द्वारा उस शृखलामें लगाव हई। मगर प्रश्न यह होता है कि चक्र बनता है कैसे ? अक्षरसे शुरू करके भूतोपर खात्मा हो जानेपर मिलान तो होती नही। भूत और अक्षर तो दो जुदी चीजें है न यह भी नहीं कि जैसे भूतोसे कर्म वनते हो-उनके ही द्वारा कर्म होते हो- वैसे ही भूतोसे अक्षर होता हो या बनता हो । फलत भारी अडचन पा जाती है। दोनो कमियोकी पूत्ति कैसे हो गई यह बात तो अलग ही है-इसका भी पता नही चलता। इस पहेलीको सुलझाने के लिये हमे ब्रह्म और अक्षरको पहले जान लेना होगा कि ये दोनो है क्या। पहले ब्रह्मको ही लें। गीतामे ब्रह्म शब्द तीन अर्थोंमें पाया है । यो तो ब्रह्म शब्दका अर्थ है वृहत् या वडा- बहुत वडा, सवसे वडा। आमतौरसे ब्रह्म कहते हैं परमात्मा या भगवानको ही। उसे इसीलिये समब्रह्म, परब्रह्म या परब्रह्म और अक्षरब्रह्म भी कहा करते हैं । ब्रह्म शब्द गीतामें कुल मिलाके प्राय तिरपन बार आया है । अध्याय और श्लोक जिनमें यह शब्द मिलता है इस तरह है-(२०७२), (३।१५), (४१२४, २५, ३१, ३२), (५१६, १०, १६, २०, २१, २४, २५,२६), (६।१४,२८,३८,४४), (५२६), (८1१, ३, ११, १३, १६, १७, २४), (१०११२), (११११५, ३७), (१३१४, १२), (१४॥३, ४, २६, २७), (१७१४, २३, २४,), (१८६४२, ५०, ५३, ५४) ।