पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२१०

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यज्ञचक्र २०७ किसी-किसी श्लोकमे कई कई बार आने के कारण ५० बारसे ज्यादा हो जाता है। मगर यदि पूर्वापर विचार किया जाय तो पता चलेगा कि पाँच ही अर्थों मे यह शब्द प्रयुक्त हुआ है । परमात्माके अर्थ में तो बारबार आया है और सबसे ज्यादा आया है। ब्राह्मण जातिके अर्थमे केवल एक बार १८वे अध्यायके ४२वे श्लोकमे पाया जाता है । यो तो इसी ब्रह्म शब्दसे बना ब्राह्मण शब्द कई बार आया है। प्रकृति या मायाके अर्थमें चौदहवे अध्यायके ३, ४ श्लोकोमे पाया जाता है। असलमे उसके साथ महत् शब्द लगा है और उसका अर्थ है महान् या महत्तत्त्व । प्रकृतिसे जिस तत्त्वकी उत्पत्ति वेदान्त और साख्यदर्शनोमे मानी जाती है उसे ही महान्, महत् या महत्तत्त्व कहते है । तेरहवें अध्यायके ५वे श्लोकमे जिसे बुद्धि कहा है वह यही महत् है। यह है समप्टि या व्यापक बुद्धि, न कि जीवोकी जुदा-जुदा। वहाँ जिसे अव्यक्त कहा है वही है प्रकृति और चौदहवेमें उसीको ब्रह्म कहा है। सातवे अध्यायके ४थे श्लोकमे भी उसे बुद्धि और अव्यक्तको अहकार कह दिया है। वहाँ मनका अर्थ है अहकार और अहकारका प्रकृति अर्थ है। चौदहवेमे महत् शब्दके सम्बन्धसे ब्रह्मका अर्थ प्रकृति हो जाता है। प्रकृतिसे ही तो विस्तार या सृष्टिका पसारा शुरू होता है और सबसे पहले समष्टि बुद्धि पैदा होती है। इसीलिये प्रकृतिका विशेषण महत् दे दिया है । महत्तत्त्व भी तो प्रकृति से जुदा नहीं है, जैसे मिट्टीसे घडा। ब्रह्म शब्दका चौथा अर्थ है हिरण्यगर्भ या ब्रह्मा। उसीको अव्यक्त भी कहा है। आठवे अध्यायके १६, १७ श्लोकोमे ब्रह्माके ही अर्थमे ब्रह्म शब्द और १८वेमें अव्यक्त शब्द आया है। ग्यारहवे अध्यायके १५वेमे भी ब्रह्म शब्दका ब्रह्मा ही अर्थ है । छठेके चौदहवें तथा १७वे के १४वे श्लोकमे ब्रह्मचारी एव ब्रह्मचर्यवाला ब्रह्म शब्द बेदके ही अर्थमे सर्वत्र आता है