पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२१२

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यज्ञचक्र २०६ अर्थ है जाना हुआ। इस प्रकार सर्वगत' शब्दका अर्थ है सब चीजोको जनाने या बतानेवाला। खुद वेद शब्दका अर्थ है ज्ञान । ज्ञानसे ही तो सब चीजे प्रकाशित होती है या जानी जाती है। इसीलिये यहाँ अर्थ हो जाता है कि सभी बातोको अवगत करानेवाले वेदोसे ही कर्म आते है, पैदा होते है या जाने जाते है। वेदका तो काम केवल बताना ही है न ? यह तो सभी वेदज्ञ जानते है कि यज्ञयागादि सभी प्रकारके कर्मोपर बहुत ज्यादा जोर वेदोने दिया है । मीमासा दर्शन उन्ही वेदवाक्योके आधारपर कर्मोका विस्तृत विवेचन करता है। श्रौत तथा स्मात सूत्र- ग्रन्थ इन्ही वैदिक कर्मोंकी विधियाँ बताते है। यहाँतक कि यजुर्वेदके अन्तिम-४०वे-अध्यायके दूसरे मत्रमे साफ ही कह दिया है कि "कर्मोको करते रहके ही इस दुनियामे सौ साल जीनेकी इच्छा करे, क्योकि मनुष्यमे कर्मोका लेप न हो-वे मनुष्यको बन्धनमे न डाले- इसका दूसरा उपाय हई नही "--"कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समा । एवं त्वयि.नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥" यह तो कही चुके है कि गीताने भी कोको ही उनके बन्धनके धोनेका साबुन बताया है। उसने इसकी तरकीब भी सुझाई है। परन्तु दरअसल ब्रह्मके दोई भेद किये गये है । मुण्डक उपनिषदके प्रथम खडमे ही जिसे परा एव अपरा विद्याके रूपमे "द्वे विद्ये वेदितव्ये" कहा है, उसी चीजको सफाईके साथ महाभारतके शान्तिपर्वके (२३१-६ । २६९-१) दो श्लोकोमे, जो हुबहू एक ही है, कह दिया है कि "ब्रह्म तो दोई है--पर तथा अपर या शब्द ब्रह्म और परब्रह्म। जो शब्दब्रह्ममे प्रवीण हो जाता है वही परब्रह्मको जान पाता है"--"द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्द ब्रह्म पर च यत् । शब्दब्रह्मणि निष्णात पर ब्रह्माधिगच्छ- ति ॥” इन्ही दोमेसे शब्द-ब्रह्मको गीताके तृतीय अध्यायमे सर्वगत ब्रह्म और पर-ब्रह्मको अक्षर कहा है । आठवे (८३) मे उसे ही अक्षर ब्रह्म और १४