पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२१३

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२१० गोता-हृदय परमब्रह्म भी कहा है। और भी स्थान-स्थानपर यही वात पाई जाती है। इस प्रकार सर्वगत वेदसे यदि कर्मोकी जानकारी होती है तो यह गका कि कर्मोके पीछे ज्ञान और दिमाग है या नहीं, अपने श्राप मिट जाती है। वेद तो ज्ञानको कहते ही है। इसलिये मानना पडता है कि यज्ञ- यागादि कर्म घडीकी सूईकी चाल जैसे न होके ज्ञानपूर्वक होते है। इनकी व्यवस्था ही ऐसी है । इसीलिये तो जवावदेही भी करनेवालोपर पाती है। अब सिर्फ दूसरी शका रह जाती है कि लोगोको समझ-बूझके करनेकी बात है या नहीं। कही ऐसा तो नही कि किसीकी प्रेरणासे विवश होके ही कर्म करने पड़ते है । इसका उत्तर "ब्रह्म अक्षरसे पैदा हुआ"--"ब्रह्माक्षर समुद्भवम्" पद देते है। श्वेताश्वतर उपनिषद्के अन्तिम-छठे-अध्यायमें एक मत्र अाता है कि "जो परमात्मा सवसे पहले ब्रह्माको पैदा करके उसे वेदोका ज्ञान कराता है-“यो ब्रह्माण विदधाति पूर्व यो वै वेदाश्च प्रहिणोति तस्मै ' (१८)। जगह-जगह वैदिक ग्रन्थोमे यही बात पाई जाती है। मनु आदिने भो यही लिखा है। ब्राह्मण ग्रथोमें भी बार-बार यही कहा गया है। इससे यह बात तो निर्विवाद है कि अविनाशी या अक्षरब्रह्मसे वेद पैदा हुए। या यो कहिये कि उसने ही वेद बनाये। और जब ऐसा नही कहके कि परमात्माने कर्म बनाये, यह कहा है कि उसने वेद बनाये, तो स्पष्ट है कि हम वेदोको पढके जानकारी हासिल करें और कर्मोको समझ- वूझके करे। अगर यह कह दिया होता कि परमात्माने कर्म ही वनाये, तो यही खयाल होता है कि कर्म करनेकी उसकी आज्ञा या मर्जी है । उसमे मोचने-विचारनेका प्रश्न है नहीं। तब सवाल यह होता है कि चक्र कैसे बनेगा ? भूतोका अक्षर ब्रह्मसे कौनमा सम्बन्ध है ? जवतक या तो भूतोसे अक्षरब्रह्मकी उत्पत्ति न मानी जाय, या दोनोकी एकता स्वीकार न की जाय तवतक शृखलाके दोनो