पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२१४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

यज्ञचक्र २११ छोर पृथक्-पृथक् रहेगे। वे मिलेगे हर्गिज नही। मगर इन दोनोमे एक भी सभव नही। भूतोमे तो सभी पदार्थ आ जाते है , चाहे जड हो या चेतन । फिर सबकी एकता ब्रह्मके साथ होगी कैसे ? उनसे ब्रह्मकी उत्पत्ति तो कोई भी नही मानता। तब यह गुत्थी सुलझे कैसे ? यहाँ हमे फिर उपनिषदोकी ही ओर देखना पडता है । तभी यह गाँठ सुलझेगी। गीता तो उपनिषद हई। सभी अध्यायोके अन्तमे ऐसा ही कहा गया भी है। वृहदारण्यक उपनिषदके चतुर्थ अध्यायके पांचवे ब्राह्मणके ११वे मत्रमे याज्ञवल्क्य एव मैत्रेयीके सम्वादके सिलसिलेमे याज्ञवल्क्यने मैत्रेयीसे कहा है कि, “यथार्दैधाग्नेरभ्याहितस्य पृथग्धूमा विनिश्चरन्त्येव वा अरेऽस्य महतो भूतस्य नि श्वसितमेतदृग्वेदो यजुर्वेद सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इति- हास पुराण विद्या उपनिषद श्लोका सूत्राण्यनुव्याख्यानिव्याख्यानीप्ट हुतमाशित पायितमय च लोक परश्च लोक सर्वाणि च भूतान्यस्यैवैतानि सर्वाणि नि श्वसितानि ।" इसका आशय यह है कि "जिस तरह गीले इंधनसे अग्निका सम्बन्ध होनेपर उससे चारो ओर धुआँ फैलता है, ठीक उसी तरह इस महान् भूतकी साँसके रूपमे ही ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, इतिहास, पुराण, कला, उपनिषद, श्लोक, सूत्र, व्याख्यान, व्याख्यानोके व्याख्यान, हवनके पदार्थ, यज्ञके भोज्य तथा पेय पदार्थ, यह लोक, परलोक, सभी भूत चारो ओर फैले है।" यहाँ कई बाते है । एक तो वेदादि जितनी ज्ञानकी राशियाँ है उनका केन्द्र परमात्मा ही माना गया है । दूसरे सृष्टिके सभी पदार्थोंका पसारा उसीसे बताया गया है। तीसरे भूतोको भी उसीकी साँसकी तरह कहा गया है। यानी भूत उससे जुदा नही है। चौथी बात यह है और यही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है कि उस परमात्माको महाभूत कहा गया है । आगेके १४, १५ मत्रोमें उसीको अविनाशी आत्मा कहा है, जिसका नाश