पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२१९

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अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ २१७ का परिवर्तन होता है, आदि बाते ऐसे लोग उस दैवी-शक्तिके ही प्रभावसे मानते है । यह बाते मानवीय शक्तिके बाहरकी है। हमारी तो वहाँ पहुँच हई नही । सूर्यसे निरन्तर ताप निकल रहा है। फिर भी वह ठडा नही होता । ऐसा करनेवाली कोई दिव्य-शक्ति' ही मानी जाती है। हम किसी चीजको कितना भी गर्म करे। फिर भी खुद बातकी वातमे वह ठडी हो जाती है। मगर सूर्य क्यो ठडा नही होता ? उसमे ताप कहाँसे आया और बराबर आता ही क्यो कहाँसे रहता है ? ऐसे प्रश्नोका उत्तर वे लोग यही देते है ससारका काम चलानेके लिये वह ताप और प्रकाश अनिवार्य होने के कारण ससारका निर्माण करनेवाली वह दैवी-शक्ति ही यह सारी व्यवस्था कर रही है। इसी प्रकार प्राणियोके शरीरोकी रचना वगैरहको भी ले सकते है। जाने कितनी दे वीर्यको योही गिर जाती है और पता नहीं चलता कि क्या हुई। मगर देखिये उसीकी एक ही बूंद स्त्रीके गर्भमे जानेसे साढे तीन हाथका मोटा- ताजा, विद्वान और कलाकार मनुप्यके रूपमे तैयार हो जाता है सिंह, हाथी आदि जन्तु बन जाते है । यह तो इन्द्रजाल ही मालूम होता है । मगर है यह काम किसी अदृश्य हाथ या दिव्य शक्तिका ही। इसलिये उसकी ही पूजा-आराधना करे तो मानव- समाजका कल्याण हो। वह यदि जरासी भी नजर फेर दे तो हम क्यासे क्या हो जायें। शवितका भडार ही तो वह देवता आखिर है न ? जिस प्रकार आधिभौतिकवादी जड पदार्थोकी पूजा करते है या यो कहिये कि इन्हीके अध्ययनमे दिमाग खर्चना ठीक मानते है, ठीक वैसे ही आधिदैवतवादी देवताओके ही ध्यान, अन्वेषण आदिको कर्तव्य समझते है। आध्यात्मिक पक्ष इन दोनोको ही स्वीकार न करके यही मानता है कि हर चीजकी अपनी हस्ती होती है, सत्ता होती है, अपना अस्तित्व