पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२२८

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अपना पक्ष २२७ अधिदैव, अधिभूतका क्या होगा? उनकी जानकारी हमे कैसे होगी? यदि न हो तो कोई हानि तो नही ? सबसे बड़ी बात यह है कि उस काममे फँस जानेपर कर्मोसे तो अलग हो जाना ही होगा। यह तो सभव नही कि ध्यान और समाधि भी करे और कर्मोको भी पूरा करे । ऐसी दशामे ससारका एव समाजका कल्याण कही गडवडीमे न पड जाय यह खयाल भी परीशान करेगा ही। उनका यह काम ऐसे मगलकारी कर्मों के भीतर तो शायद ही आये। कमसे कम इसके बारेमे उन्हे सन्देह तो होगा ही। फिर काम कैसे चलेगा? और अगर जानकार लोग ही समाजके लिये मगलकारी कामोको छोडके अपने ही मतलबमे-अपनी ही मुक्तिके साधनमे-फंस जायँ, तो फिर ससार- की तो खुदा ही खैर करे । तव तो ससार पथदर्शनके विना चौपट ही हो जायगा। इसके अतिरिक्त यज्ञवाला प्रश्न भी उन्हें परीशान करेगा। जव पहले ही कहा जा चुका है कि “यज्ञोके बिना तो यही खैरियत नहीं होती, परलोकका तो कुछ कहना ही नहीं".-"नाय लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्य कुरुसत्तम" (४१३१), तो काम कैसे चलेगा ? तब तो सव खत्म ही समझिये। यज्ञके ही बारेमे एक बात और भी उठ सकती है । यदि कहा जाय कि यज्ञ तो व्यापक चीज है । अतएव ध्यान और समाधिके समय भी होता ही रहता है, तो सवाल होता है कि यज्ञमे असल लक्ष्य, असल ध्येय कौन है जिसे सन्तुष्ट किया जाय ? कही वह कोई दूसरा तो नही है । ज्ञान, ध्यान तो शरीरके भीतर ही होता है और यह यदि यज्ञचक्रमे आगया तव तो अच्छी बात है। तव तो वीमारी, दुर्वलता, अशक्ति और मरणावस्थामे भी यह हो सकता है । इसीलिये तव खास तोरसे यह जानना जरूरी हो जाता है कि शरीरके भीतर जब यज्ञ होता है तो उससे किसकी तृप्ति होती है, कौन सन्तुष्ट होता है । कही नास्तिकोकी तरह खायो-पिनो, मौज करोकी बात तो नहीं होती और केवल .