ईश्वरवाद २३६ जुटनेने दूसरा और तीसरा वनता है। यह बात चाहे जैसे भी देखे, यह तो मानना ही होगा कि पहलेके जिन मूतोमे पहला कपडा वना और उन्हीमे उगका गमावेश है, अँटाव है, उन्हीमे दूसरा भी बनता है और उसके बादवाले कपडे भी बनते हैं, हालांकि दूसरे-तीसरे ग्रादिका अँटाव कुछ नये मूतोमे भी रहता है । मगर पहले सूतोमे भी तो रहता ही है। पीछेवाले कपडे पल्लेवाले सूतोके बिलकुल ही वाहर तो चले जाते नही। ऐमी हालतमे उन्ही गनामें कई कपड़े कैसे घुटेंगे, यही तो पहेली है । कपडे तो द्रव्य है और द्रव्य तो जगह घेर लेते है। इसीसे नैयायिक कहते है कि एक ही म्यानम एकसे ज्यादा द्रव्योका अंटाव या समावेश नहीं हो सकता । तब सवाल होता है कि यदि एक ही कपडा उनमे रहेगा तो माफ ही है कि जोईपीछे या नया वनेगा, तैयार होगा,तैयार होता जायगा वही सभी- नये पुराने--सूतोमे समाविष्ट होगा। फलन पहलवाले हट जायेंगे, नप्प हो जायेंगे, खत्म हो जायँगे । जैसे-जैसे नये मिरेने कपड़ा बनता जायगा तैने-तैसे पहले वने कपडे नष्ट होते जायेंगे । इस प्रकारके सभी पदार्थोमे यही प्रक्रिया जारी रहती है--पलेवालोके नागका यह सिलन्लिा भारी रहता है। दूसरा उपाय है नहीं--दूसरा चारा है नहीं। बात तो गुष्ट अजीव और वेढगीसी मालूम पड़ती है। मगर हमे इस दुनियागें पितनी ही वेढगी बात माननी ही पड़ती है। जव बुद्धि और तकनी पनोटीपर कसते है तो जो बाते खरी उतरे उनके मानने में उच्च क्या है ? मिली जमानमे मूर्य स्थिर है और पृथिवी चराती है, इस बानवे पर्नेवालो- को वही बाफने झेलनी पड़ी। मगर गणित और हिमाव-पिताको गरी जो थो। वे लोग करते नया ? नतीजा यह हया कि साज ग्राम- तो वही बात मानी जाने लगी। पहले विमानका यह विप्तान न होनेके कारण लोगोको एनमे निमार ! म अाज तो विमाननेही बता दिया है कि जनरही पुराने व -
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