ईश्वरवाद २४३ 1 अन्वेषणमे पड जाये हमने तो यहाँ थोडेसे प्रश्न नमूनेके तौरपर ही दिये है। इसी खोद-विनोद, इसी जॉच-पडताल, इसी अन्वेषणके सिलसिलेमें इन जैसे प्रश्नोके उत्तर ढूंढते-ढूँढ़ते हमारे प्राचीन दार्शनिकोको विवश होके ईश्वर और कर्मवादकी शरण लेनी पडी, यह सिद्धान्त स्थिर करना पडा। मनुष्य अपनी पहुँचके अनुसार ही कल्पना करता है । हम तो देखते है कि नियमित व्यवस्था बुद्धिपूर्वक ही होती है। बिना समझ और ज्ञानके यह बात हो पाती नहीं। और अगर कभी घडी या दूसरे यत्रोको नियमित काम करते देखते है तो उसीके साथ यह भी देखते है कि उनके मूलमे कोई बुद्धि है जिसने उन्हें तैयार करके चालू किया है। वही उनके बिगड जाने- पर पुनरपि उन्हे ठीक कर देती है । जड पदार्थोमे तो यह शक्ति नहीं होती कि अपनी भूल या गडबड देखे, त्रुटिका पता लगाये और उसे सँभाले । इसके बाद हम बाकी दुनियामे भी ऐसी ही व्यापक या समप्टि बुद्धिकी कल्पना करते है, क्योकि हम सभी मिल-मिलाकेभी बहुतसे कामोको नही कर सकते । वे हमारी ताकतके बाहरके है । दृष्टान्तके लिये चावल वगैरहके बारेमे जो वाते पूछी गई है उन्हीको ले सकते है। वे हमारी पहुंचके बाहरकी बाते है। जिन्हे हम देख पाते नही उनकी व्यवस्था क्या करे ? और अगर थोडी देरके लिये मान भी ले कि हमी सब लोग उन्हे करते है, कर लेते है, कर सकते है, तो भी हम सबोके कामोकी मिलान (Co-ordination) तो होनी ही चाहिये न ? नही तो फिर वही गडवड होगी। अब इस मिलानका करनेवाला कोई एक तो होगा ही जो सब कुछ बखूबी जानता हो । जो लोग इन प्रश्नोके सम्वन्धमे प्रकृति, नैसर्गिक-नियम, शाश्वत- faen (Nature, Natural Law, Eternal Law) 484 वाते टाल देते है वे शब्दान्तरसे अपनी अनभिज्ञता मान लेते है। हमारा
पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२४१
दिखावट