२४४ गीता-हृदय ? . काम है गुप्त रहस्योका पता लगाना, प्रकृतिकेससारके-नियमोको ढूंढ निकालना। दिमाग, अक्ल, बुद्धिका दूसरा काम है भी नही। इन बातोसे किनाराकशी करना भी हमारा काम नहीं है। कोई समय था जब कहा जाता था कि योगियोका आकाशमे योही चला जाना असभव है, दूर देशका समाचार जान लेना गैरमुमकिन है । पक्षी उडते है तो उडे । उनकी तो प्रकृति ही ऐसी है। मगर आदमीके लिये यह बात असभव है। अपेक्षाकृत कुछ कम-बेश दूरीपर हमारी आवाज दूसरोको भले ही सुनाई दे। मगर हजारो मील दूर कैसे सुनाई देगी शब्दका स्वभाव ऐसा नहीं है, आदि-आदि। मगर अन्वेषण और विज्ञानने सब कुछ सभव और सही बता दिया-करके दिखा दिया । फलत स्वभावकी बात जाती रही। मामूलीसी वातमे भी तर्क-दलील करते-करते जब हम थक जायें और उत्तर न दे सके, तो क्यो न स्वभाव या प्रकृतिकी शरण लेके पार हो जायँ ? तब हम भी क्यो न कह दे कि यही प्रकृतिका नियम है, नित्य नियम है ? बात तो एक ही है। ज्यादा बुद्धिवाले कुछ ज्यादा दूरतक जाके प्रकृतिकी शरण लेते है। मगर हम कम अक्लवाले जरा नजदीकमे ही। और यह कैसे पता चला कि यह प्रकृतिका नियम है, नित्य नियम है ? प्रकृति क्या चीज है ? नियम क्या चीज है ? किसे नियम कहें और किसे नही ? पहले तो कहा जाता था कि पृथिवी स्थिर है और सूर्य चलता है। क्यो ? यही नित्य नियम है यही उत्तर मिलता था। अव उलटी बात हो गई। इसलिये प्रकृति, नेचर और प्राकृतिक नियमोकी वात करना दूसरे शब्दोमें अपने अज्ञान, अपनी सकुचित समझ, अपनी अविकसित वुद्धिको कबूल करना है। यह बात पुराने दार्शनिक नहीं करते थे। और जव जड नियमोको मानते ही है, तो फिर चेतन ईश्वरको ही क्यो न मानें ? अन्धेसे तो आँखवाला ही ठीक है न? नहीं तो फिर भी अडचन आ सकती है।
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