पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२४९

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अवतारवाद २५१ + योगिता है क्या ? गीता कहती है कि "भले लोगोकी रक्षा, बुरोके नाश और धर्म-सत्कर्मों, पुण्यकार्यों, समाज-हितकारी कामो की मजबूती एव प्रचारके लिये बार-बार-समय-समयपर-अवतार होते है",- "परित्राणाय साधूना विनाशाय च दुप्कृताम् । धर्मसस्थापनार्थाय सभ- वामि युगेयुगे" (४८) । अवतारके पहलेकी भी समाजकी दशा यो कही गई है, "जब-जब धर्म-सत्कर्मो का खात्मा या अत्यन्त ह्रास हो जाता है और अधर्म-बुरे कर्मों-की वृद्धि हो जाती है तभी-तभी भगवान खुद आते है"-"यदायदाहि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थान- मधर्मस्य तदात्मान सृजाम्यहम्” (४७) । इन श्लोकोमे जो ‘यदायदा' -जब-जब-तथा 'युगे-युगे'-~-समय-समय पर-कहा है उसका तात्पर्य यही है कि ऐसी ही परिस्थिति के साथ अवतारका ताल्लुक है । जिस प्रकार खेती-बारी के लिये जमीन और सीचनेके लिये पानी की जरूरत है, साँसके लिये जैसे हवा जरूरी है। ठीक वैसेही ऐसी परिस्थिति जानेपर उसका समुचित सामना करने, उसके प्रतिकारके लिये अवतार जरूरी है । पृथिवी, जल, वायु आदिका काम जिस प्रकार दूपरोसे नही हो सकता है-जिस तरह पृथिवी आदिके बिना काम चल नही सकता-ठीक उसी तरह अवतारका काम और तरहसे, दूसरोसे चल नही सकता---उसके विना काम हो नहीं सकता। इससे साफ हो जाता है कि जिस प्रकार पृथिवी प्रादि पदार्थ बनते है, पैदा होते है लोगोके समप्टि कर्मोके ही करते उन्हीके फलस्वरूप, ठीक वैसे ही अवतार होते है लोगोके समष्टि कर्मोके ही फलस्वरूप उन्हीके करते । अब यही देखना है कि यह बात होती है कैसे। इसमे विशेष दिक्कतकी तो कोई बात है नही। राम, कृष्ण आदि अवतारोके शरीरोसे भले लोगोको-साधु-महात्माओ, देवतायो, तपस्वियो, सदाचारियो और भोलोभाली जनताको-तो वेशक आराम पहुँचता