पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२५४

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२५६ गीता-हृदय अब एक ही सवाल और रह जाता है। कहा जा सकता है कि शरीर बन जानेपर तो भगवानकी भी वही हालत हो जायगी जो साधारण जीवो- की। वही तकलीफ-पाराम, वही माया-ममता और वही हैरानी-परीशानी होगी ही। इसका उत्तर गीताने चौथे अध्यायमें ही दे दिया है। वहाँ लिखा है कि, "अविनाशी एव जन्मशून्य होते हुए और सभी पदार्थोका शासक रहते हुए भी मै अपनी मायाके बलसे शरीर धारण करता हूँ। मगर अपने स्वभावको कायम रखता हूँ जिससे माया मुझपर अपना असर नही जमा पाती"--"अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् । प्रकृति स्वामधिष्ठाय सभवाम्यात्ममायया" (४१६) । माया कहने और अपने स्वभावको कायम रखनेकी बात बोलनेका मतलब यह है कि एक तो भगवानका शरीर साधारण लोगो जैसा देखनेपर भी वैसा नही है; किन्तु मायामय और नटलीला जैसा है। नटकी कलाकी कितनी ही बातें असाधारण होती है । वह देखने में चाहे जो लगे, मगर उनकी हकीकत कुछ और ही होती है । देखनेवाले चकाचौध में पडके और का और समझ बैठते है। यही बात अवतारो के भी शरीरो की है। दूसरी बात यह है कि साधारण लोगोकी तरह माया-ममतामे वे दबते नही । उनका अपना स्वभाव, अपना ज्ञान, अपनी अना- सक्ति और अपना बेलागपन वराबर कायम रहता है । खानपान आदि सारी क्रियाएँ उस शरीरके लिये आवश्यक होनेके कारण ही होती है जरूर। मगर उनमे वे अवतार लिपटते नही, चिपकते नही। वे इन सब बातोंसे बहुत ऊपर रहते है। यह भी जान लेना जरूरी है कि गीतामे इस मायाको दैवी या अलौकिक शक्तिवाली कहा है, जिसमे हजारो गुण, खूबियां या करिश्मे होते है- "देवीह्येषा गुणमयी मममाया” (७।१४) । इसीलिये उस मायाके चलते जो गरीर बनेगा उसमें मामूली नटोके करिश्मोसे हजार गुने अधिक 1