पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२५५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अवतारवाद २५७ करिश्मे होगे-चमत्कार होगे। वह तो महान् इन्द्रजाल होगा। इसीके साथ-साथ यह भी बात है कि जिस तरह कर्मोकी व्यवस्था वताके भगवानके शरीर वननेकी रीति कही जा चुकी है वह असाधारण है, गैरमामूली है । इसीलिये जो निराले, अलौकिक काम अवतार करते है वह औरोमे पाये नही जाते, पाये जा नहीं सकते। यह तो सारी प्रणाली ही अलौकिक है, निराले कर्मोकी खेल है, भगवानकी लीला है। भगवान भी दिव्य है, निराले है। उनकी माया भी वैसी ही है। अनोखे कर्मोसे ही उनके शरीर वनते है, न कि मामूली कर्मोसे। इसीलिये गीताने कह दिया है कि इन सारी निराली बातोको जो ठीक-ठीक समझता है, भगवानके दिव्य जन्म एव दिव्य कर्मको जो बखूबी जान जाता है, मरनेके बाद वह पुनरपि जन्म नही लेके भगवान ही बन जाता है-"जन्म कर्म च मे दिव्यमेव यो वेत्ति तत्वतः । त्यत्का देह पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन" (४६) । अवतारोके सम्बन्धमे गीताकी वाते सामान्य रूपसे वताई जा चुकी । अव एक खास बात कहके यह प्रसग पूरा करना है। हमने जो परमाणुओंके जुटनेसे पृथिवी प्रादिके बनने और अलग होनेसे उनके नष्ट हो जाने तथा प्रलयके आ जानेकी बात कह दी है उससे यह तो पता लगी गया कि प्रलय और कुछ चीज नहीं है, सिवाय इसके कि वह कर्मोंके, और इसीलिये सभी पदार्थोके जो उस समय रह जाते है, विरामका समय है, विश्रामका काल है। ससारमे विश्रामका भी नियम पाया जाता है। इसीलिये कर्मवादके माननेवालोने कर्मोके सिलसिलेमे ही उसे माना है। इसीलिये वे प्रलयको कर्मोका विश्राम काल और सृष्टिको उनके काम या फल देनेका समय मानते है। इसी नियमके अनुसार जव-जव जहाँ-जहाँ समष्टि कर्मोकी प्रेरणासे अवतारोकी आवश्यकता अनिवार्य हो जाती है तव-तव तहाँ-तहाँ अवतार पाये जाते है, होते है। किसी खास देश या खास समयमे ही अवतारोका १७