गुण और प्रधान २६५ है । शरीरके लिये जैसे पित्तादि तीनोकी जरूरत है, वैसे ही ससारके लिये सत्त्वादिकी आवश्यकता है। हाँ, पित्त आदिकी मात्रा निश्चित रहे तो ठीक हो, नही तो गडवड, वेचैनी, बीमारी हो । यही बात सत्त्वादि- की भी है। उनकी भी निश्चित मात्रा है और जहाँ वह विगडी कि गडवड शुरू हुई । जैसे शरीरमे एक समय एक ही पित्त या वायु या कफ प्रधान होके रहता है, वैसी ही वात इन गुणोकी भी है । एक समय एक ही प्रधान रहेगा, बाकी उसीके मातहत । यही बात गीताने “रजस्तम- ग्चाभिभूय” (१४११०) श्लोकमे साफ कही है। इन गुणोका परस्पर विरोध तो मानते ही है । वायु, कफ, पित्त, की भी यही बात है। मगर जरा और भी देख ले। ज्ञानके लिये, हल्केपन के लिये और प्रकाशके लिये क्रिया नहीं चाहिये, भारीपन नही चाहिये । ज्यादा हलचलसे प्रकाश रुक जाता है, ज्ञान नहीं हो पाता, मनकी एकाग्रता नही हो पाती । भारीपनसे या तो नीद आती है या बेचैनी होती है। ज्ञान है सत्त्वका काम । हल्का- पन और प्रकाश भी उसीका काम है। उसकी विरोधी क्रिया है रजका काम और भारीपन है तमका। साफ ही देखते है कि ज्ञान होनेसे मन उसमे लगे तो क्रिया रुक जाये। निद्रा या भारीपन भी जाता रहे । हल्कापन उसका विरोधी जो है । भारीपन हो तो सारी चीजे दबके रह जायें, नीद आ जाय और क्रिया न हो सके । ज्ञानकी तो बात ही मत पूछिये । ६से ६ तथा ११से १८ तकके श्लोकोमे इसी बातका सुन्दर विवरण है। मगर खूबी यह है कि इन तीनोका आपसमे समझौता है कि हम लोग मिलके रहेगे, नहीं तो किसीकी खैर नही | राजनीतिमे आज जो धर्मों और देशोका परस्पर विरोध है वह तो इनके सामने फीका पड जाता है-वह इनके विरोधके सामने कुछ नही है । मगर चाहे हमारी नादानीसे
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