पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२६१

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२६४ गीता-हृदय विदित हो जाती है। इसीलिये इस अध्यायका विशेष महत्त्व हमने माना है। इन्हें गुण क्यो कहते है, इस सम्बन्धमें पाँचवाँ श्लोक खास महत्त्व रखता है । मगर उसका अर्थ करने या और भी विचार करनेके पूर्व हमें सृष्टिकी एक बात जान लेनेकी है जो उससे पहलेके ३, ४ श्लोकोमें कही गई है। हम तो हमेशा सृष्टिके ही सम्बन्धमें सोचते है कि यह कैसे बनी, इसका विकास या पसारा कैसे हुआ । दर्शनोका श्री गणेश तो इसी बातको लेके होता ही है, यह पहले ही कहा जा चुका है। प्रलय या सृष्टि न रहनेकी दशाको तो हम पहले सोचते नही। वह तो हमारे सामनेकी चीज है नहीं। विचारके ही सिलसिलेमें जब उसकी बात पीछे आ जाती है, तो उसपर भी सोचते है। मगर उस दशामें भी वह महज खयाली और दिमागी चीज होती है। वह सामनेकी या ठोस वस्तु तो होती नही। फिर पहले उधर खयाल जाये तो कैसे ? एक बात और है। सृष्टिका अर्थ ही है अनेकता, विभिन्नता (Diversity, heterogeneity) set faftan EHT करते है और अन्वेषण चालू होता है। प्रलय तो इससे उलटी चीज है। उसमें तो एकता और अभिन्नता है, एकरूपता और समता (Uniformity & homogeneity) है। जैसा कि गीताने चौद- हवेके ६-१८ श्लोकोमे बताया है, गुणोमें तो परस्पर विरोध है-वे ऐसे है कि एक दूसरेको खा जायें। यदि हम इन तीनोंके प्रतिनिधिके रूपमें पित्त, वात और कफको मान लें तो इनकी बात कुछ समझमें आ जाये। क्रमश सत्त्व, रज, तमकी जगह स्थूल शरीरमे पित्त, वात, कफ माने जाते भी है । पित्तादिमें सत्त्वादिकी ही यो भी प्रधानता रहती है । सत्त्वमे प्रकाश, उजाला, हल्कापन आदि माने जाते है। पित्तमें भी यही चीजे है । पित्त आग या गर्म है और उसीमें ये वाते होती है। रजमे क्रिया होती है और वायु तो सतत क्रियाशील है । तम भारी है और कफ भी जकड़नेवाली चीज