पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२६४

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गुण और प्रधान २६७ करनेके ही लिये इन्हे गुण कहा है। दसवे श्लोकसे यही पता चलता है। अव जरा दूसरा पहलू देखिये । यदि ५-६ श्लोकोको देखे तो पता चलता है कि ये तीनो ही गुण वाँधनेका काम करते है । कोई ज्ञान, सुख आदिमे मनुष्यको लिप्त करके, लिपटाके उन्ही चीजोसे उसे बाँध देते है। क्योकि किसी चीजको ज्यादती ही ऐब है, वन्धन है, तो कोई क्रिया और लोभ आदिमे फंसा देते हैं । यह नहीं हुआ, वह नही हुआ, यह काम शेष है, वह वाकी है इसी हाय-हायमे जिन्दगी गुजरती है । जिस प्रकार सत्त्व गुण ज्ञान आदिमे फँसाके वाँध देता है, उसी प्रकार रज क्रिया और लोभ श्रादिमे । जालमे फँसानेका काम करनेमे ज्ञान, सुख, क्रिया, लोभ चारेकी जगह प्रयुक्त होते है। तमका तो फँसाना काम प्रसिद्ध ही है । वह तो हमेशाका ही वदनाम है। मगर जो उससे अच्छा रज है और जो महान् माने जानेवाला सत्त्व है वह भी फँसानेमे किसीसे पीछे नही है ! "छोटी वहू तो छोटो, बडी बहू शुभानल्ला !" और यह तो जानते ही है कि फाँसने और बाँधनेका काम रस्सी करती है। फिर चाहे वह सूतकी बारीक या मोटो हो, या और चोजकी हो । सस्कृतमे रस्सीको गुण कहते है । इसी- का अपभ्रंश होके गोन शब्द हो गया। नाव खीचनेकी रस्सीको गोन कहते है। फलत फंसाने और बाँधनेकी ताकत इन गुणोमे होनेके ही कारण इन्हे गुण कहा है, ताकि लोग इनसे सजग रहे । ५-६ श्लोकोसे यह स्पष्ट है। श्वेके उत्तरार्द्धमे तो एक ही साथ तोनोको बाँधनेवाले कह दिया है-"निबध्नन्ति महावाहो।" इसीलिये अर्जुनको कहा गया है कि इन गुणोसे ऊपर जामो-"निस्वैगुण्यो भवार्जुन" (२।४५)। इसी चौदहवे अध्यायमे भी कहा है कि इन गुणोसे अलग ब्रह्मात्माको जानने- वालेकी मुक्ति होती है-“गुणेभ्यश्च पर वेत्ति" (१४११६), तथा इन गुणोसे ऊपर उठनेपर ही मनुष्य ब्रह्मरूप हो जाता है- “स गुणान्स- मतोत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते" (१४१२६) । - -