२६८ गीता-हृदय गुणोमें यह परस्पर विरोध और मिलके काम करनेकी-दोनो- बात योगसूत्र--"परिणामतापसस्कारदु खैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दु खमेव सर्व विवेकिन" (२।१५)--में और इसके भाष्यमें भी अत्यन्त विशद रूपसे वताई गई है। वहीपर यह भी कह दिया है कि तीनो गुण परस्पर मिलके ही हर चीज पैदा करते है । इसीलिये तो सभी पदार्थोंमें तीनो ही गुण पाये जाते है । ईश्वरकृष्णने साख्यकारिकाप्रोमें भी “सत्त्व लघु प्रकाशक- मिष्टमुपष्टम्भक चल च रज । गुरु वर्णकमेव तम प्रदीवच्चार्थतो वृत्ति (१३) के द्वारा इन तीनो गुणोको परस्पर विरोधी वताके बादमें तीनोंके मिलके काम करनेका बहुत ही सुन्दर दृष्टान्त दिया है। इनके परस्पर मिलनेका कारण भी बताया है। वह कहता है कि जिस प्रकार दीपकमें तेल, वत्ती और तेज या अग्नि तीनो ही परस्पर विरोधी है, तथापि तीनोको मिलाये विना रोशनी होई नही सकती। आग वत्ती और तेल दोनोको ही खत्म करनेवाली है । तेल ज्यादा दे दिया जाय तो जलना वन्द हो जाय, बुझ जाय । वत्तीको भी भिगोके विकृत बना देता है। वत्ती भो तेलको सोखती है और अगर सख्त बत्ती या कपडेका वडल डाल दें तो चिराग वुझ जाये। मगर प्रयोजनवश तीनोको हिसाबसे रखके काम चलाते है। इस तरह परस्पर मेलसे ही दीपक जलता है। इसी प्रकार ससारके कामोके चलाने और गुणोके अपने स्वतत्र अस्तित्वके ही लिये तीनोका मिलके काम करना जरूरी हो जाता है। तीनों गुणोंकी जरूरत अब हमे एक ही वातका विचार करना शेष है जिसका सृष्टिसे ही ताल्लुक है । बादमे प्रलयकी बात कहके आगे बढेंगे। सृष्टिकी रचना कैसे होती है यह बात तो प्रलयके ही निरूपणमे आगे आयेगी। अभी तो हमे यह देखना है कि इन तीनो परस्पर विरोधी गुणोकी क्या जरूरत
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