तीनों गुणोकी जरूरत २६६ है। क्या सचमुच ही इन तीनोकी आवश्यकता है, यह प्रश्न होता है । उत्तरमें 'हाँ' कहना ही पडता है। यह कैसे है यह बात और ये तीनो एक दूसरेकी मदद कैसे करते है यह भी एक ही साथ मालूम हो जायगी। यदि सिर्फ सत्त्व रहे तो हम ज्ञान, प्रकाश तथा सुखसे ऊव जायँगे । एक ही चीजका निरन्तर होना (monotony) ही तो ऊबनेका प्रधान कारण है। इसीलिये तो परिवर्तन जरूरी होता है । ज्ञानके मारे न नीद, न खाना- पीना, न और कुछ होगा। प्रकाशमे चकाचौध हो जायगी । हल्का होके यह ससार कहाँ उड जायगा कौन कहे ? यदि सिर्फ तम हो तो भी दवते-दवते कहाँ जायगा पता नही। निरन्तर नीद, भारीपन, जडता, अँधेरा, अज्ञान कौन बर्दाश्त करेगा? पत्थरकी दशा भी उससे अच्छी होगी। ससारका कोई काम होगा ही नही। इसलिये यदि सत्त्व और तम दोनोको ही माने तो दोनो एक दूसरेको दबाके खत्म या वेकार (neu- tralised) कर देगे। फलत दोमे एकका भी काम न होगा। इसीलिये रज आके दोनोमें क्रिया पैदा करता है, दोनोको चलाता है। ताकि दोनो सारी ताकतसे प्रापसमे भिड न सके । न दोनो जमेगे, स्थिर होगे और न जमके लडेगे। फिर एक दूसरेको बेकार कैसे बनायेगे ? यदि रज ही रहे और वरावर क्रिया होती रहे तो भी वही बेचैनी! सारी दुनिया जल्द घिस जाये, मिट जाये । इसलिये तम उसे दवाके बीच-बीचमे क्रिया- को रोकता है। सत्त्व क्रियाका पथ-प्रदर्शन करता है प्रकाश और ज्ञान देके । मगर जब तम प्रकाशको रोक देता है तो ज्ञानके अभावमे भी क्रिया रुकती है। ज्ञान और क्रियाके बिना कुछ होई नही सकता। अत्यन्त हलकी चीज स्थिर हो सकती ही नहीं। फिर उसमे ज्ञान या क्रिया हो कैसे ? उसे वजनी बनानेके लिये भी तो तमोगुण चाहिये ही। इस प्रकार तीनोकी जरूरत और परम्पर सहायता स्पष्ट सिद्ध है।
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