पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२७३

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सृष्टिका क्रम २७७ कौन-कौन पदार्थ कैसे बने कि यह सृष्टि चालू हो, इसका काम चले, यही बात उसने सोची और इसीके अनुसार सृष्टि बनाई। यह तो हमारा काम है कि हममे हरेक आदमी खुद भला-बुरा सोचके अपना रोजका काम करता रहे। इसीलिये तो हमे बुद्धि दी गई है। उसे देकर ही तो ईश्वर जवाब- देहीसे हट गया और उसने हमपर अपने कामोकी जवाबदेही लाद दी। अब जरा यह देखे कि ईश्वरके सोचने और तदनुसार सृष्टि बनानेके मानी क्या है। वह हमारे जैसा देहधारी तो है नही कि इसी प्रकार सोचे- विचारेगा। यह तो कही चुके है कि प्रलयमे प्रधान या प्रकृति समान थी, एक रूप थी। उसमें अनेकता और विभिन्नता लानेके लिये सबसे पहले क्रिया होना जरूरी है। क्योकि क्रियासे ही अनेकता और विभिन्नता होती है। मिट्टीका एक धोधा है। क्रियाके करते ही उसे अनेक टुकडोमे कर देते या उससे अनेक बर्तन तैयार कर लेते हैं। मगर क्रियाके पहले जान- कारी या ज्ञान जरूरी है । यह तो हम कही चुके है कि सोच-विचारके यह सृष्टि बनी है। एक बात यह है कि यदि फिजूल और बेकार चीजे न बनानी हो, साथ ही, सृष्टिकी सभी जरूरते पूरी करनी हो तो जो कुछ भी किया जाय वह सोच-विचारके ही होना चाहिये । कुम्हार सोच-साचके ही बर्तन बनाता है। किसान खेती इसी तरह करता है। नही तो अन्धेर- खाता ही हो जाय और घडेकी जगह हाडी तथा गेहूँकी जगह मटरकी खेती हो जाय । यही कारण है कि साख्यने ईश्वरको न मानके भी सृष्टिके शुरूम यह सोचना-समझना या ज्ञान माना है। मगर ज्ञान तो जड प्रकृतिमे होगा नही और जीवका काम साख्यके मतसे सृष्टि करना है नही। इसी- लिये वेदान्तने और गीताने भी सृष्टिके मूलमे ईश्वरको माना है। वह है भी परम-आत्मा या श्रेष्ठ-आत्मा । वह ज्ञान होगा भी हम लोगोके ज्ञान जैसा कुछ बातोका ही नही, छोटा या हलकासा ही नही। वह तो सारी सृष्टिके सम्बन्धका होगा, .