पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२७४

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२७८ गीता-हृदय . इन पांच . व्यापक और वडेसे बडा होगा। इसीलिये उसे महत् या महान् कहा है। उसके बाद जो क्रिया होगी उसीको अहम् या अहकार कहा है । यह हम 'लोगोका अहकार नहीं होके सृष्टिके मूलकी क्रिया है। समष्टि या व्यापक ज्ञानकी ही तरह यह भी व्यापक या समष्टि क्रिया है। नीदके बाद जब ज्ञान होता है तो उसके बाद पहले अहम् या मै और मेरा होनेके बाद ही दूसरी क्रिया होती है, और प्रलय तो नीद ही है न ? इसीलिये उसके वादकी समष्टि क्रियाको अहकार नाम दिया गया है। इस प्रकार या क्रियाके वाद प्रकृतिकी समता खत्म होके विभिन्नता आती है और आकाश, वायु, तेज (प्रकाश), जल, पृथिवी इन पाचो की सूक्ष्म या अदृश्य मूर्तियाँ (शकलें) बनती है । इन्हीसे आगे सृष्टिका सारा पसारा होता है। सूक्ष्म पदार्थों या भूतोके भी, जिन्हें तन्मात्रा भी कहते है, वही तीन गुण होते है, जैसा कि कह चुके है। उनमे पांचोके सात्त्विक अशो या सत्त्वगुणोसे क्रमश श्रोत्र, त्वक्, चक्षु, रसना, घ्राण ये पांच ज्ञान- इन्द्रियाँ बनती है, जिनसे शब्दादि पदार्थोके ज्ञान होते है । ज्ञान पैदा करनेके ही कारण ये ज्ञानेन्द्रियाँ कहाती है। उन्ही पांचोके जो राजस भाग या रजोगुण है उनसे ही क्रमश वाक्, पाणि (हाथ), पांव, मूत्रेन्द्रिय, मलेन्द्रिय ये पांच कर्म-इन्द्रियाँ बनती है। इन पांचोसे ज्ञान न होके कर्म या काम ही होते है। फलत ये कर्मेन्द्रियाँ कही गईं। और इन पांचोके रजो- गुणोको मिलाके पांच प्राण-प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान- बने । ये पांचोके रजोगुणोके सम्मिलित होनेपर ही बनते है । उसी तरह पांचोके सत्त्वगुणोको सम्मिलित करके भीतरी ज्ञानेन्द्रिय या अन्त करण वनता है, जिसे कभी एक, कभी दो-मन और बुद्धि-और कभी चार- मन, बुद्धि, चित्त, अहकार-भी कहते है । उसके ये चार भेद चार कामोके ही चलते होते है, जैसे पांच काम करनेसे ही एक ही प्राण पांच प्रकारका हो गया। हमें यह न भूलना होगा कि जब हम सत्त्व या रजो- 1 -