२८० गीता-हृदय पृथिवी कहते ही रहे । जल आदिकी भी यही बात समझा जाना चाहिए । यह ठीक है कि इस विवरणमें साख्य और वेदान्तमे थोडासा भेद है। पांच प्राणोको साख्यवाले पाँच कर्म-इन्द्रियोंसे जुदा नही मानते । इसलिये उनके मतसे पांच तन्मात्रा, दस इन्द्रियाँ और अन्त करण यही सोलह पदार्थ अहकारके बाद बने । उनके मतमें पांच तन्मात्राकी ही जगह पाँच महाभूत है । क्योकि तन्मात्राओके तामसी अशोको ही मिलाने से ये पाँच भूत हुए। इसीलिये वे तन्मात्राो और भूतोको अलग-अलग नही मानते । महाभूतोके बनने के बाद तन्मात्राएँ तो रह जाती भी नहीं। उनके सात्त्विक तथा राजस भागोसे ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, प्राण और अन्त करण बने । बचे-बचाये तामस अशसे महाभूत। बाकी ससार तो इन्हीं महाभूतोका ही पसारा या विकास है, परिणाम है, रूपान्तर है, करिश्मा है। इस प्रकार उनके ये सोलह तत्त्व या विकार सिद्ध होते है। वेदान्तियोने पाँच कर्मेन्द्रिय, पांच ज्ञानेन्द्रिय, मन और बुद्धि ये दो अन्त - करण-और कभी-कभी मन, बुद्धि, चित्त, प्रकार ये चार अन्त करण- मानके सत्रह या उन्नीस पदार्थ मान लिये । पाँच भूतोको मिला लेनेपर वे चौबीस हो गये। महान् तथा अहकारको जोडनेपर छब्बीस और प्रकृतिको लेके सत्ताईस हो गये। साख्यके मतसे तेईस रहे । मगर यह तो कोई खास बात है नही। यह व्योरेकी चीज है। ये पदार्थ तो सभी -दोनो ही मानते ही है। एक वात और । हम पहले कह चुके है कि गीताके मतसे गुण प्रकृतिसे निकले है, वने है। मगर हमने अभी-अभी जो कहा है उससे तो गुणोंके बजाय बुद्धि, ज्ञान या महत्, अहकार और पचतन्मात्राएँ--यही चीजें- प्रकृतिसे निकली है। भले ही यह चीजे गुणमय ही हो। मगर गुणोका निकलना न कहके इन्हीका निकलना कहनेका मतलब क्या है ? वात तो सही है । गुणोका वाहर पाना सीधे नही कहा गया है। लेकिन .
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