पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२७७

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सृष्टिका क्रम २८१ ज्ञान या महत् है क्या चीज, यदि सत्त्वगुण नही है ? ज्ञान तो सत्त्वका ही रूप है न ? उसी प्रकार अहकार है क्या यदि रजोगुण या क्रिया है नही ? अहकारको तो समष्टि क्रिया ही कहा है और क्रिया रजोगुणका ही रूप है न ? अब रह गये पचभूत जिन्हे तन्मात्रा कहते है। वह तो तमके ही रूप है । आगे जब पचीकरणके द्वारा वे दृश्य और स्थूल बनते है तब तो उन्हे तमका रूप कहते ही है। फिर पहले भी क्यो न कहे ? यह ठीक है कि तमके साथ भी सत्त्व और रज तो रहेगे ही, जैसे इनके साथ तम भी रहता ही है। इसीलिये तो पचतन्मात्रामोके सत्त्व-प्रशसे ज्ञानेन्द्रियाँ और रज-अशसे कर्मेन्द्रियाँ बनती है । इसलिये यह तो निर्विवाद है कि “गुणाः प्रकृतिसभवा"--प्रकृतिसे गुण ही बाहर होते है । चौदहवे अध्यायके ३, ४ श्लोकोमे जो गर्भाधानकी बात कही गई है उसका मतलब भी अब स्पष्ट हो जाता है। गर्भाधानके बाद ही गर्भा- शयमे क्रिया पैदा होके सन्तानका स्वरूप धीरे-धीरे तैयार होता है । उसके पहले उसमे बच्चेका नाम भी नहीं पाया जाता। ठीक उसी तरह महान् या समष्टि ज्ञानरूप चिन्तन, सकल्प या सोच-विचारके बाद ही प्रकृतिके भीतर अहकार या समष्टि क्रिया पैदा होके पचतन्मात्रादिकी रचना होती है। जबतक भगवानके इस समष्टि ज्ञानका सम्बन्ध प्रकृतिसे नहीं होता, जबतक वह खयाल नहीं करता, तबतक प्रकृतिमे कोई भी क्रिया- मथन-पैदा नही होती जिससे सृप्टिका प्रसार हो सके । प्रकृतिकी शान्ति, समता या एकरसता-घोर गभीरता--भग होती है अहंकार रूप मथन क्रिया हीसे और वह पैदा होती है महत्तत्त्व, महान् या समष्टि ज्ञानके बाद ही । इसोको उपनिषदोमे ईक्षण या सकल्प कहा है, जैसा कि छान्दोग्यमे “तदक्षत बहुस्या प्रजायेय' (६।२।३) । 'प्रजायेय' शब्दका अर्थ है कि प्रजा या वश पैदा करे । इससे गर्भाधानकी बात सिद्ध हो जाती है। गीताने भी यही हा है। तामे गर्भाधानके बाद 'सभव.'