पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२७९

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अद्वैतवाद २८३ क्रमसे या उसके मूलपदार्थोंसे नहीं है । पाँच तन्मात्रा, महान् आदिके अलावे क्षेत्रके अन्तर्गत जो विषय, राग, द्वेष आदि अनेक चीजे आगे गिनाई गई है उन्हीमे ये पांच विषय भी है। सातवे अध्यायमे इन्द्रियोका नाम न लेकर शेष पदार्थोंका उल्लेख "भूमिरापोनलो वायु. ख मनो बुद्धिरेव च । अहकार इतीय मे भिन्ना प्रकृति- रष्टधा" (७४) श्लोकमें आया है । जैसा कि पहले कहा गया है, यह अपरा या नीचेवाली प्रकृतिका पाठ भेद या प्रसार बताया गया है । तेरहवे अध्यायके “महाभूतानि"की जगह यहाँ पाँचो भूतोका नाम ही ले लिया है "भूमि, जल,अनल (तेज), वायु और आकाश (ख)।" मगर उत्तरार्द्धम जो "मनो बुद्धिरेव च अहकार" शब्दोमे मन, बुद्धि और अहकारका नाम लिया है उसके समझनेमे थोडी दिक्कत है । जिस क्रमसे तेरहवे अध्यायमे नीचेसे ही शुरू किया है, उसी क्रमसे यहाँ भी नीचेसे ही शुरू है, यह तो साफ है । मगर पृथिवी, जल, तेज, वायु और आकाशके बाद तो क्रम है अहकार, महान् और प्रकृतिका । इसलिये मन, बुद्धि, अहंकारका अर्थ क्रमश. अहकार, महान् और प्रकृति ही करना होगा। दूसरा चारा है नही। इसमें बुद्धिका अर्थ महान् तो ठीक ही है । वे दोनो तो एक ही अर्थवाले है। हाँ मनका अर्थ अहकार और अहकारका प्रकृति करनेमे जरा उलट-फेर हो जाता है। लेकिन किया जाय क्या ? इस प्रकार गुणवाद और सृष्टिका क्रम तथा उसकी प्रणाली आदि बातें सक्षेपमे स्पष्ट हो गईं। गीताके मतका इस सम्बन्धमे स्पष्टीकरण भी हो गया। इससे उसके समझनेमे आसानी भी होगी। अद्वैतवाद अब अद्वैतवादको कुछ बाते भी जान लेनेकी है । गीताका क्या खयाल इस सम्बन्धमे है यही बात समझनी है। हालांकि जब वेदान्तके ही अनु- ,