पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२८२ गीता-हृदय और 'मूर्तय' लिखनेका मतलब भी ठीक ही है। स्वरूप ही तैयार होते है, पैदा होते है, प्राकृतियाँ बनती है। हमने जो प्रकृति, महान्, अहकार, पचतन्मात्रा आदिकी बात कही है उसका मतलव अव साफ हो गया। यहाँ सचमुच ही बच्चे या फलकी तरह पैदा होनेका सवाल तो है नहीं। प्रकृति तो पहलेसे ही होती है। महान्का उसीसे पीछे सम्बन्ध होता है। इसीलिये प्रकृतिके बाद ही उसका स्थान होनेसे प्रकृतिसे उसकी उत्पत्ति अकसर लिखी मिलती है। महान्के बाद ही प्राता है अहकार। इसीलिये वह महान्से पैदा होनेवाला माना जाता है, हालांकि वह प्रकृतिकी ही क्रिया है। उसके बाद पच- तन्मात्राये प्रकृतिसे ही बनती है । मगर कहते है कि अहकारसे तन्मात्रायें पैदा हुई। यह तो कही चुके है कि ये तन्मात्रायें महाभूतोके सूक्ष्म रूप है। इसीलिये इन्हें भूत और महाभूत भी कहा करते है । तेरहवें अध्यायके “महाभूतान्यहकारो वुद्धिरव्यक्तमेव च । इन्द्रियाणि दर्शक च पच चेन्द्रियगोचरा" (१३॥५) का अर्थ यह है कि पांच महाभूत (तन्मात्राएँ), अहकार, समष्टि बुद्धि (महान्), अव्यक्त या प्रकृति (प्रधान), ग्यारह इन्द्रियाँ-दस वाहरी और एक अन्त करण-और इन्द्रियोके पांच विषय, यही क्षेत्रके भीतर आते है, क्षेत्र कहे जाते है। क्षेत्रका अर्थ है शरीर। मगर यहां समष्टि शरीर या सृष्टिकी बुनियादी -शुरूवाली-चीजसे मतलब है । इस श्लोकमें वही वाते है जिनका वर्णन अभी-अभी किया है। श्लोकके पूर्वार्द्ध में तन्मात्रामोसे ही शुरू करके उलटे ढगसे प्रकृतितक पहुँचे है। मगर ठीक क्रम समझने में प्रकृतिसे ही शुरु करना होगा। श्लोकमे क्रमसे तात्पर्य नहीं है। वहां तो कौन-कौनसे पदार्थ क्षेत्रके अन्तर्गत है, यही वात दिखानी है। इसीलिये उत्तरार्द्धमें ग्यारह इन्द्रियाँ आई है । नहीं तो उलटे क्रममे इन्द्रियोंसे ही शुरू करते। इन्द्रियोके बाद जो उनके पांच विषय लिखे है उनका कोई सम्बन्ध सृष्टि-