स्वप्न और मिथ्यात्ववाद ? तो कोई शक है नहीं। मगर मपनेमे भी क्या ये सच्ची ही लगती है ? क्या गपनेमे ये मच्ची होती है, बनी रहती है ? यदि कोई हाँ कहे, तो जगने पूछा जाय कि भरपेट खाके सोनेपर सपनेमे भूसे दर-दर मारे क्यो फिरने है ? पेट तो भरा ही है और वह यदि सच्चा है, तो सपनेमे भूखे होनेकी क्या बात ? तो क्या भूखे होनेमे कोई भी शक उस समय रहता है ? इसी प्रकार कपडे पहने सोये है। महल या मकानमे ही बिस्तर है भी। ऐसी दगामे सपनेमे नगे या चिथड़े लपेटे दर-दर खाक छाननेकी बात क्यो मालूम होती है क्या इससे यह नहीं सिद्ध होता कि जैसे रुपनेकी चीजे जागनेपर नहीं रह जाती है, ठीक उसी तरह जागृतकी चीजें भी सपने में नहीं रह जाती है ? जैसे सपनेकी अपेक्षा यह ससार जागृत है, तैसे ही इसकी अपेक्षा मपनका ही ससार जागृत है और यही सपनेका है। दोनोमे जरा भी फर्क नहीं है । सपनेकी वात थोडी देर रहती है और यहाँकी हजारो नाल, यह बात भी वैसी ही है । यहां भी वैसा ही सवाल उठता है कि क्या सपनेमे भी यहाँकी चीजें थोड़ी ही देरकी मालूम पडती है ? या वहाँ भी सालो और ग गुजरते मालूम पड़ते है ? नपनेमे किसे सयाल होता है कि यह दस ही पांच मिनटका तमाशा है ? वहाँ तो जाने कहां-कहां जाते, हप्तो, मातीनी, मालो गुजारते, सारा इन्तजाम करते दीखते है, ठीक जैसे यहाँ कर रहे है । हां, जगनेपर वह चन्द मिनटकी चीज जरूर मालूम होता है । तो गोनेपर इन ससारका भी तो यही हाल होता है। इनका भी नहीं पता रहता है ? अगर ऐसा ही विचार करनेका मौका वहाँ भी पाये तो ठीक ऐसी ही दलील देते मालूम होते है कि वह नो बन्द ही मिनटोफा मागा है ! उन समय यह जागृतवाला संसार ही गन्द मिनटोकी चीज नगर पाती है और सपनेकी ही दुनिया स्थायी प्रतीत होती है ! नलिये पर नी सक वेमानी है । नालिये भुनुडीने अपने सपने या अमने वारेने .
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