२८८ गीता-हृदय कहा था कि "उभय घरी मह कौतुक देखा।" हालाँकि तुलसीदासने उनका ही बयान दिया है कि उस समय मालूम होता था कि कितने युग गुजर गये। गौड पादाचार्यने माण्डूक्य उपनिषदकी कारिकाप्रोमें दोनोकी हर तरहसे समानता तर्क-दलीलसे सिद्ध की है और बहुत ही सुन्दर विवेचनके बाद उपसहार कर दिया है कि "मनीषी लोग स्वप्न और जागृतको एकसा ही मानते है। क्योंकि दोनोकी हरेक बातें बराबर है और यह विलकुल ही साफ वात है"--"स्वप्नजागरिते स्थाने ह्येकमाहुर्मनीषिण । भेदाना हि समत्वेन प्रसिद्धेनैव हेतुना।" अनिर्वचनीयतावाद ससारके सम्बन्धके इस मन्तव्यको मिथ्यात्ववाद और 'अनिर्वचनीय- तावाद भी कहते हैं। अनिर्वचनीयताका अर्थ है कि इन चीजोका निर्वचन या निरूपण होना असभव है । इनकी सत्यता तो सिद्ध होई नही सकती। यदि इनको अत्यन्त निर्मूल मानें और कहें कि ये अत्यन्त असत्य है, जैसे आदमीकी सीग न कभी हुई, न है और न होगी, तो यह भी ठीक नहीं । क्योकि सीग तो कभी दीखती नही। मगर ये तो प्रत्यक्ष ही दीखते है । इसलिये मनुष्यकी सीग जैसे तो नही ही है । यदि इन्हें सत्य और असत्यका मिश्रण मानें, तो यह और भी बुरा है । क्योकि परस्पर विरोधी चीजोका मिश्रण असभव है । फलत मानना ही पडता है कि इनके बारेमें कुछ भी कहा नही जा सकता है ये अनिर्वचनीय है। मगर यह सही है कि ये मिथ्या है। मिथ्याका मतलब ही यही है कि मालूम तो हो कि कुछ है, मगर ढूँढनेपर उसका पता ही न लगे । यह विचार कुछ नया और निराला प्रतीत होता है सही । 'मगर रेखागणितमें जो विन्दुका लक्षण बताया गया है कि उसमें लम्बाई-चौडाई कुछ भी होती नही, या रेखाके वारेमें जो कहा गया है कि उसमें केवल लम्वाई होती है, चौडाई नही,
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